________________
४६२ )
हीनेन लभ्यः" इति । बलकार्य हि प्रभुवशीकरणम । तच्च "अहंभक्तपराधीनः ; " वशेकुर्ववन्ति मां भक्त्या" इत्यादि वाक्यं भक्त्यं वेति बल शब्देन भक्तिरुच्चते । अन्यथा पूर्ववाक्य एवेतर निषेधस्य कृतत्वात् पुनर्ब लाभावनिषेधस्य न कुर्यात् । वरणमात्रस्य हेतुत्वमुक्त्वा बलस्य तथात्वं च न वदेत् एतादृशस्य हृदि भगवत् प्राकट्यं भवतीत्याह - "एतैरुपायैर्यं तते यस्तुविद्वांस्तष आत्माविशते ब्रह्म धाम" इति । अस्यार्थस्त्वेष आत्मा आत्मतो -- प्यात्मा पुरुषोत्तमो ब्रह्म, अक्षर ब्रह्मात्मकं धाम विशते इति, धामपदं पुरुषोत्तमस्याक्षरं ब्रह्म सहजं स्थानं इति ज्ञापनार्थ उक्तमन्यथा न वदेत् । तेन तद् हृदये स्वस्थानमा विर्भावयित्वा स्वयं तत्र प्रकटी भक्तीति ज्ञाप्यते ।
पुरुषोत्तम प्राप्ति में हेतुरूप, भक्तिमार्गीय जिस वरण को स्वीयत्व रूप से अंगीकार किया गया है वही ठीक है, उसका कोई दूसरा रूप नहीं है, इस बात को दिखलाने के लिये, उसी प्रकरण में आगे कहते हैं- "यह आत्मा बल हीन व्यक्ति से प्राप्त नहीं है : " प्रभु को वशीकरण करना ही बल का कार्य है । " मैं भक्त के पराधीन हूँ" मुझे भक्ति से वश में करते हैं । यदि ऐसा न होता तो, पूर्वं वाक्य में जो इतर प्रवचन आदि का निषेध हो चुका था पुनः लाभाव का निषेध न करते । वरण मात्र को हेतुता वतला कर बल को पुनः हेतु बतलाते । बलवान हृदय में ही भगवान का प्राकट्य होता है जैसा कि कहते भी है – “ इन उपायों से विद्वान प्रयास करते हैं यह आत्मा ब्रह्मवाम में प्रवेश करता है ।" इसका अर्थ है कि - यह आत्मा का भी आत्मा पुरुषोत्तम ब्रह्म, अक्षर ब्रह्मात्म धाम में प्रवेश करता है धाम पद, पुरुषोत्तम के अक्षर ब्रह्म रूप सहज स्थान का वाचक है, इसी भाव से कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि भक्त के हृदय में अपने स्थान को प्रकट करके, उसमें स्वयं प्रकट होते हैं ।
•
प्रकृते श्वेतकेतूपाख्याने परोक्ष वादेन ब्रह्माभेदबोधनेन पुरुषोत्तमाधिष्ठानत्व योग्यता ज्ञाप्यते । अग्रे तु नहि एतावर्तव अधिष्ठानात्मिकाऽक्षराविर्भावो भवति, पुरुषोत्तमस्य वा । तथा सति ज्ञानिनां सर्वेषां परप्राप्तिः स्यान्नत्वेवं, "भक्त्याहमे कयाग्राह्यः" इत्यदि वाक्यः, किन्तु भगवदनुग्रहेण भक्तसंगेन
भक्तौ सत्याम् इति ज्ञापनाय, भक्तएव तद्बोधाधिकारी इत्यादि ज्ञापयितुं भक्तस्य नारदस्य भगवदावेश युक्तस्य सनत्कुमारस्य च संवाद उक्तः । तत्रात्मशब्देन पुरुषोत्तम उच्यते । भक्ति मार्गे तु निरुपधिस्नेह विषयः स एव यतः । स