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( ४६१ ) विद्यं व तु निर्धारणात् ॥३॥३॥४७॥
तु शब्दः पक्षं व्यावत यतियदुक्तं सनत्कुमार नारद संवाद आत्मज्ञान प्रकार विशेष एव निरूप्यत इति तन्न, किन्तु विद्युव निरूप्यते इति । अत्रदमाकूत-"नायमात्मेति श्रुतिरितरसाधन निषेधपूर्वकं वरणस्य साधनत्व मुक्त्या वृत्तलम्यते हेतुत्वंवदन् वरण विषयमप्याह-"तस्येष आत्मावणुतेतनु स्वाम्" इति । तस्यवृत्तस्वात्मन् एष भगवानात्माऽतएव तत्तनूरूपः स जीवास्मा । तद्वरणस्यावश्यकत्व ज्ञापनाय स्वामिति । सर्वो हि स्वकीयांतनुमात्मीयत्वेनात्मत्वेन च वृणुते । तद् विशिष्ट एव भोगान् भुंक्ते । अतएव तैत्तरीयकोपनिपत्स्वपि ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" इति सामान्यतो ब्रह्मविदः परब्रह्मा प्राप्तिमुक्त्वा अग्रिमर्चा विशेषतोऽवदत् । “सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" इति ब्रह्म स्वरूपमुक्त्वा-'यो वेद निहितं गुहायां परभेव्योमन् सोश्नुते सर्वान, कामान् मह ब्रह्मणा विपश्चिता "इत्युक्तम् । एतद्यथा नंदमयाधिकरणे प्रतंचितम स्माभिः ।
सुत्रस्थ तु शब्द पूर्व पक्ष का निराकरण करता है । जो यह कहा कि-सनकुमार नारद संवाद में आत्मज्ञान के प्रकार विशेष का ही निरूपण किया गया है, सो बात नहीं है, किन्तु भूमा विद्या का ही निरूपण है । इसमें आशय ये हैं कि-"नायमात्मा" श्रुति इतर साधन निषेध पूर्वक वरण की साधनता बतलाकर परमात्मा प्राप्ति की हेतुता बतलाने के लिये वरण का स्वरूप बतलाते हैं-"यह परमात्मा जीव को अपने शरीर के रूप में वरण करता है।" यह जीवात्मा परमात्मा का शरीर रूप है, भगवान ही इसका आत्मा है जीव के वरण की आवश्यकता बतलाने के लिए "स्वाम्" पद का प्रयोग किया गया है । सभी लोग अपने शरीर को आत्मीय रूप से ही चरण करते हैं। उसी के आश्रम से मोगों को भोगते हैं । इसलिये तत्तरीयोयनिषद् में भी - "ब्रह्म विदाप्नोतिपरम्" इत्यादि में सामान्य रूप से ब्रह्मविद की परब्रह्म प्राप्ति बतलाकर आगे अर्चा विशेष बतलाते हैं "सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म" इत्यादि से ब्रह्म स्वरूप बतलाकर “जो गुहा में निहित परम व्योम को जानता है, वह विपश्चित, ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है ।" इस विषय में हमने आनन्दमयाधिकरण में सब कुछ कह दिया हैं ।
किं च पुरुषोत्तमलाभे हेतुभूतं तु भक्ति मार्गे यद्वरणं स्वीयत्वेनांगीकाररूपं तदेव, नत्वान्यादृशमपीति ज्ञापनायाग्रे वदति- "नायमात्मा ब..