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मानना चाहिए, ब्रह्म तो वैदिक मंत्रों से ही ज्ञात है, जैसा वेदों में उसके विषय में कहा गया है, ब्रह्म वैसा ही है, यह हम बार-बार कह चुके हैं । हिरण्मय पद वैदिक व्याकरण के अनुसार यकार के लुप्त होने पर निष्पन्न हुआ है अतएव द्वय नहीं है, इसलिए इसमें भी जो मयट् प्रत्यय है वह विकार वाची न होकर आनंदवाची ही है। लोक में भी हिरण्य (सुवर्ण) श्रानंद साधक ही होता है, इसलिए हिरण्मय केश आदि भी आनंदमय ही हैं। उनका संपूर्ण स्वरूप आनंदमय है यही मानना चाहिए, जैसा कि कहा भी गया है - " कमलासन पर विराजमान, सूर्य मंडल मध्यवर्ती नारायण ही ध्येय हैं, जो कि हिरण्मय शरीर, केयूर, मकराकृत कुंडल, मुकुट, हार और शंख चक्र धारण किये हुए हैं ।" इस स्तुति में भी उनके शरीर को, अपने आनंदमय रूप से वही र्णन किया गया है । " इस माया का मैंने सर्जन किया है" इत्यादि भगवत् वाक्य का भी यही तात्पर्य है कि - भगवन्माया से प्रायः लोग भगवान को दूसरे रूप में देखते हैं । भगवान ही मायिक हैं, ऐसा तात्पर्य नहीं है । शरीर की स्थिति में जीवत्व होता है यह निश्चित बात है । इससे यही मानना चाहिए कि सूर्यमंडलस्थ जो प्राकृति है वह शरीर नहीं है, अपितु परमात्मा के आनंदमय स्वरूप की छवि है ।
भेदव्यपदेशाच्चान्यः 1919|२०||
इतोऽपि सूर्य मंडल स्थः परमात्मा, भेदव्यपदेशात् - "य प्रादित्ये तिष्ठन् श्रादित्यादंतरो यमादित्यो न वेद, यस्यादित्यः शरीरम् य आदित्य मंत यमयत्येष त श्रात्मान्तर्याम्यमृत" इति श्रुत्यंतरे आधिदैविकं सूर्यमंडलाभिमानिभ्यां भेदेन निर्दिष्टम् । यद्यपि तत्राकारो न श्रूयते तथाऽपि हिरण्मयवाक्यनैकवाक्यत्वात् सर्वत्र साकारमेव ब्रह्मति मंतव्यम् । अन्तर्यामिब्राह्मणे चत्वारोऽर्था उच्यन्ते, सर्वत्र तिष्ठन् तद् धर्मः न संबध्यते, सर्वमुक्ति परिहाराय स्वधर्मंस्तन्न बद्ध्यते, स्वलीला सिद्ध्यर्थं तच्छरीरमिति, तस्य नियमनं तदर्थ - मिति चकाराद्धर्मा उच्यन्ते । तस्मात् सर्वविलक्षणत्वादन्य एव नाभिमानी, उपचारव्यावृत्त्यर्थं मन्यपदेनोपसंहारः । ब्रह्मत्वे सिद्धे ज्ञानं वा उपासना वेति नास्मसिद्धान्ते कश्चन विशेषः । कारणे कार्य धर्मारोपस्त्वयुक्त एव कार्ये पुनः काररण-धर्माधिकरणत्वेनोपासना प्रभेदात् फलायेति सर्वत्र व्यवस्थितिः ।
सूर्य मंडलस्थ आकृति इसलिए भी परमात्मा है कि - अन्तर्याभिब्राह्मण में स्पष्ट रूप से जीव और परमात्मा के भेद का उल्लेख है - " जो आदित्य में