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[ जो शब्द जिस अर्थ की प्रतीति करा रहे हैं, उनका अन्य रूप से अर्थ करना उद्वाप तथा अन्यरूप से अर्थ प्रतीत कराने वाले वाक्यों का स्वाभाविक अर्थ करना आवाप है ]
ततोऽप्येवं ध्यानादिसमाध्यन्तरूपनिदिध्यासनरूपं मनसि सर्वतो निवृत्त व्यापारे स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवरूपं ब्रह्म । इदमेव ब्रह्मज्ञानमिति । अन्तः दृशस्यानुभवैकवेद्यत्वाद्य ुक्तमविषयत्वम्, पाक भोजनतृप्तिचत् ।
श्रीर ऐसे ध्यान धारण समाधिरूप निदिध्यासन से, समस्त जागतिक व्यापारों से निवृत्त मन में, स्वाभाविक रूप से स्वतः उपलब्ध जो निजसुखानुभूति होती है वही ब्रह्म है, इसे ही ब्रह्म ज्ञान कहते हैं । अन्तःकरण से दृष्ट अनुभव मात्र से वेद्य होने से ही इसे वारणी का अविषय कहा गया है जैसे कि मिष्टान्न भोजन की तृप्ति वाणी से अकथ्य होती है ।
अतः श्रवणाङ्ग मीमांसायां माहात्म्यज्ञानफलायां भगवद्वाक्यानामन्यपरत्वेऽन्यवाक्यानांच भगवत्परत्वे दिव्यधर्मादिव्यधर्मव्यत्यासेन वैपरीत्यं फलमापद्यत । तदर्थं दिव्यधर्मनिर्धारो द्वितीयाधिकरणे विचारितः । वेदा एव वाचकाः प्रलौकिकमेव कर्मेति । ततः पूर्णालौकिकत्वाय विधिनिषेधमुखेनाधिकरणद्वयम् । समन्वयेक्षतिरूपम् तदनुप्रथमे पादे शाब्दसंदेहो निवारितो निश्चितार्थे । तत्रापि प्रथमं प्रत्ययसंदेहो निवारितो द्वयेन । प्रकृतिसंबंधोऽप्याधिकरणत्रयेण, पुनरन्तिमधिकरणं संश्लेषनिराकरणाय एवं प्रथमे पादे शब्द संदेहो निवारितः ।
प्रथम पाद के द्वितीय अधिकरण में श्रवण के भंग मनन श्रादि की मीमांसा तथा माहात्म्य ज्ञान का फल निरूपण करते हुए भगवद्वाक्यों का अन्यार्थ तथा अन्य वाक्यों का भगवत्परक अर्थ करने से दिव्य धर्म और
दिव्य धर्म का उलट फेर होने से विपरीत फल हो जाता है, इसलिए दिव्य धर्म का विशेष रूप से निर्धारण किया गया है । वेद ही परब्रह्म के स्वरूप के निर्धारक हैं परब्रह्म के कर्म अलौकिक हैं, उनकी पूर्ण अलौकिकता को विधि निषेधात्मक वाक्यों से दो अधिकरणों में दिखलाया गया है । " एकोऽहं बहु - स्याम" इत्यादि ईक्षण विधायक वाक्यों में ही ब्रह्म परक वाक्यों का समन्वय किया गया है । उसके प्रथम पाद में निश्चितार्थ की स्थापना करते हुए शब्द संदेह का निवारण किया गया है, उसमें भी प्राथमिक दो सूत्रों से प्रत्यय संदेह का निवारण किया गया है। तीन अधिकरणों से प्रकृति का संबंध