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आज्ञा से हे महाबाहुरुद्र ! तुम मोह शास्त्र बनाम्रो जिसमें प्रतथ्य और वितथ्य का प्रदर्शन करो अपने मनः कल्पित आगम की रचना करके लोगों को मुझसे विमुख करो। इस प्रज्ञासे महादेव ने अपने अंश से ( शंकराचार्य के रूप में ) अवतार लेकर बंदिकों में घुसकर विश्वास जमाने के लिये वेदों की यथार्थ ब्याख्या करके सदसद विलक्षण असद की ही दूसरी मूर्ति श्रविद्या को सर्व कारण के रूप में स्वीकार कर उसकी निवृत्ति के लिये जाति भ्रंशरूप पाखण्ड मार्ग संन्यास को फैलाकर सारे लोक को व्यामोहित कर लिया । व्यास ने भी उनसे कलह करके शंकर को शाप देकर मौन भाव धाग किया । अव श्रग्नि रूप मैंने हर प्रकार सत का उद्धार करने के लिए श्रुतिसूत्रों को सुसंगत करके समस्त शंकाओं का निराकरण कर दिया यह जानना चाहिए। प्रथम अध्याय में ही शंकर मत को देने हुए विस्तार से उसका निराकरण कर चुका हूँ इसलिए यहाँ नहीं कर रहा हूँ ।
उदासीनानामपि चैवं सिद्धिः | २|२|२७ ॥
यद्यभावाद् भावोत्पत्तिरंगी क्रियते तथा सत्युदासीनानामपि साधन रहितानां सर्वोऽपि धान्यादिः सिद्धयेत् प्रभावस्य सुलभत्वात् ।
यदि प्रभाव से भावोत्पत्ति मान ली जाय तो साधन रहित प्रालसियों को भी धान्यादि सब के पकाये मिल जावेंगे, जिन वस्तुओं के प्रभाव की बात है वो तो रहेगी नहीं सब कुछ सुलभ रहेगा ।
नाभाव उपलब्धः | २२|२८||
एवं कारणासत्वं निराकृत्य, विज्ञानवाद्यभिभत प्रपंचासत्यत्वं निराकरोति ।
कारणासत्ववाद का निराकरण करके अब बौद्धों के विज्ञानवादी योगाचार के प्रपंच असत्यत्व का निराकरण करते हैं ।
स च ज्ञानातिरिक्तः प्रपंचोनास्तीत्याह । तन्न अस्य प्रपंचस्य नाभाव:, उपलब्धः, उपलभ्यते हि प्रपंच: यस्तूपलभमान एव, नाहमुपलभ इति वदति, स कथमुपादेयवचनः स्यात् ।