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इन सबको समान धर्मता का उपयोग कहाँ हैं ? इसका उत्तर देते हैं किबुद्धि के लिए इनका व्यपदेश किया गया है, बुद्धि ही इनका प्रयोजन है । संशय करते हैं कि-उन रूपों में उपासना संभव नहीं है। इस पर दृष्टान्त देते हैं कि-जैसे भूत आदि की चतुष्पादता उपासना के लिए है, वैसे ही उन गुण'वान परमात्मा के स्वरूप ज्ञान के लिए, उनकी स्वधर्म प्रशंसा के लिए इनका वर्णन किया गया है।
स्थान दिशेषात् प्रकाशादिवत् ।३।२।३४।।
ननु “स एवायम्" इत्यतिदेशेऽपि तथा बुद्धिः संपद्येतैवेति व्यर्थो धर्मातिदेश, इत्याशंक्य, तथोक्तेऽपि समानधर्मत्वज्ञानाभावे हेतुमाह-स्थान विशेषात् इति । धम्पॅक्येऽपि स्थान विशेष प्राप्त्य। न समान धर्मवत्त्वं दृश्यते । अन्यत्रापि न तथात्वमायास्यतीत्यतिदेशो धर्माणामपि कृत इत्यर्थः । अस्मिन्नर्थं दृष्टान्तमाह-प्रकाशादिवत् इति, “यदादित्यगतं तेज" इति वाक्यादादित्य चन्द्राग्नि गत तेजसामैक्येऽपि न समान प्रकाशत्वं यथा तथात्रापीति ज्ञानसंभवादित्यर्थः आदि पदादेकस्यैव कालस्य यथोपाधिविशेष संबंधादुत्तरायण त्वाद्य त्तम धर्मवत्वं तद् विपरीत धर्मवत्वं तथेत्यपि संगृह्यते ।
शंका करते हैं कि-बुद्धि का प्रयोजन तो “स एवायम्" इत्यादि में किये गए अतिदेश से भी सिद्ध हो जाता है फिर सेतु आदि धर्मातिदेश की क्या आवश्यकता है ? वे तो व्यर्थ ही है । इस पर कहते है कि पूर्व अतिदेस में धर्मत्व ज्ञान का अभाव है, धत्स्य होते हुए भी, स्थान विशेष में “स एवायम् इत्यादि अतिदेश में समान धर्मवत्ता नहीं है। अन्यत्र भी कहीं किसी प्रसंग में वैसी बात नहीं आती, इसलिए धर्मों का भी अतिदेश किया गया है। इस संबंध में दृष्टांत देते है "प्रकाशादिवत्" जैसे कि -"यदादित्य गतं तेज" इस वाक्य से ज्ञात होता है कि - सूर्य चन्द्र अग्नि में तेज साम्यैक्य होते हुए भी समान प्रकाशता नहीं है, वैसे ही उक्त अतिदेश में ज्ञान संभव की विशेषता है । सूत्रस्थ आदिपद से, एक ही काल के उपाधि विशेष सम्बन्ध से उत्तरायण सूर्य की उत्तम धर्मता और उससे विपरीत निकृष्ट धर्मता का भी विवेचन हो जाता है।
उपपतश्च ।३।२॥३५॥
किंच सत्यज्ञानाद्य क्त धर्म विशिष्ट ब्रह्मणोऽन्य उत्तमोऽस्तीतिवदता तत्रेत