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- रम्यज्ञान युक्त ईश्वरत्व भाव से जो प्रभु में सहज स्नेह किया जाय वह विहिता भक्ति है | किसी भी अन्य भाव से भगवान् प्राप्त नहीं हो सकते, अतः काम क्रोध आदि भावों को भी भगवान् में लगातार चलने को अविहिता भक्ति . कहते हैं । दोनों ही प्रकार की भक्ति को मुक्ति साधन बतलाया गया है, ये दोनों ही विहित भक्ति है । कामादि उपाधि से होने वाले स्नेह से ये काम - आदि ही मुक्ति के साधन हैं, इन्हीं साधनों से भगवान में चित्त लग जाता है । 'आदि स्नेह भी इन्हीं के समकक्ष है । स्नेह के अभाव में भी, अनुचित होते पुत्र हुये भी भगवद् विषयक होने से सामान्य द्वेष आदि को भी इनके समकक्ष माना -- गया है शास्त्रों में काम आदि को बहुत हेय दृष्टि से देखा गया है । सब कुछ निवेदन करते हुये घर में भगवत् सेवा करने में यदि काम क्रोध आदि उनके उपयोगी साधन के रूप में प्रयोग किये जायें तो वे ही मुक्ति के साधक होंगे । उक्त प्रकार के घर भगवान के ही घर हैं अतः उन्हें आयतन कहा गया है, इसी नाम का प्रयोग अधिकता से मिलता है ( आयतन शब्द अग्नि के स्थान, • पवित्र स्थान और देव स्थान के रूप में ही प्रायः प्रयोग किया जाता है) स्त्री, पुत्र पशु आदि सभी भगवत् सेवोपयोगी हों यही उक्त प्रकार की भक्ति रीति - है । इसे ज्ञान आदि मार्गों से उत्कृष्ट बतलाया गया है। काम क्रोध आदि बाधक भी साधक हो जाते हैं माहात्म्यज्ञानपूर्वक स्नेह होते हुए भी पति रूप . से भगवान को मानकर काम भाव संभव है, यही बात चकार के प्रयोग से स्पष्ट : की गई है ।
वह सत्यादतः ३ | ३|३९ ॥
अथैवं विचार्यते, प्राप्त भक्तेः पुरुषस्य सत्यशमदमादयो विधीयन्ते न वेति । - फलोपकार्यन्तरंग साधनत्वाच्छुद्धी सत्यामेव चित्त भगवत् प्रादुर्भाव संभवात् विधीयत इति पूर्वपक्ष: । तादृशस्य तेन विधीयन्त इति सिद्धान्तः । तत्र हेतु - माह - हि यस्माद् हेतोः सैव भक्तिरेव सत्यादि सर्वसाधन रूपा । तस्या सत्यां सत्यापदयो ये ज्ञानमार्गे विहितत्वात् कष्टेन क्रियन्ते मुमुक्षुभिस्ते भक्तहृदि भगवत्प्रादुर्भावात् स्वतएव भवन्तीतिभिर न विधिम पेक्षन्त इत्यर्थः ।
अब विचार करते हैं कि- भक्ति युक्ति पुरुष को शमदम आदि की साधन . करनी चाहिये या नहीं ? फलोपकारी अंतरंग साधनों के रूप में इन शमदम आदि की साधना करने पर चित्त के शुद्ध हो जाने पर ही चित्त में भगवत् प्रादु: र्भाव सम्भव है अतः उनका साधन भक्तिमार्ग में आवश्यक है ये पूर्वपक्ष