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जो कही गई, वह भी गोण बात है । भगवद्धमं के पालन के बाद अवकाश मिलने पर तत्कालीन वर्णाश्रम धर्म के पालन न करने पर ही प्रत्वाय होता है भगवद्धर्म पालन के समय वर्णाश्रम धर्म पालन का कोई महत्व नहीं है ।
नवतन्तात्पर्यकत्वे श्रुतेरुपनयनादिवत् कर्मोपयोगित्वं भक्ति तज्ज्ञानयोः स्यादिति कर्मण एव प्राधान्यं नतु भक्तेः सिद्धयति इत्याशंक्य भक्ति तज्ज्ञानावश्यकत्व प्रबोधक श्रुतितात्पर्यमाह
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यदि श्रुति का उक्त प्रकार का तात्पर्य निकालेंगे तो, उपनयन आदि की तरह, भक्ति और भक्तिजन्य ज्ञान की भी, कर्मोंपयोगिता सिद्ध होगी, जो कि एक प्रकार से कर्म की ही प्रधानता हुई, भक्ति की नहीं ? इस शंका पर भक्ति और भक्तिजन्य ज्ञान की आवश्यकता की प्रतिबोधक श्रुति का तात्पर्य बतलाने के लिये सूत्र प्रस्तुत करते हैं
उपस्थितेऽतस्तद्वचनात् | ३ | ३ | ४१ ||
तयोर्युगपत करणेऽनुपस्थितेऽपि यदि पूर्व भगवद् धर्मं करणमुच्येत् तदात्वदुक्तं स्यान्नत्वेवं किन्नूभयोर्युगपत्करण उपस्थिते बलाबलविचारे क्रियमात् आदराव्हेतोस्तद्वचनात् भगवत् धर्माणां बलवत्वेनालीपवचनान्न कर्मा - त्वमेतेषां सिद्धयतीत्यर्थः ।
वर्णाश्रम धर्म और भगवद् धर्म एक साथ उपस्थित न भी हों तो भी पहिले भगवद् धर्मं करने की बात श्रुति में कही गई, उससे भी तुम्हारी बात कट जाती है । यदि दोनो कर्तव्य एक साथ सामने आ जावें तो उसके बलाबल पर विचार कर करने की बात सामने आती है, उसमें भी का विशेष आदर है, उसके पालन मात्र से सब कुछ पूरा हो जाता है, वर्णाश्रम धर्म का लोप नहीं होता, तथा भगवद् धर्मं केवल क्रियामात्र है, ऐसा नहीं कह सकते ।
भगवद् धर्मः
तन्निर्द्धारिणानियमस्तद्दृष्टः प्रथग्ध्य प्रतिबंधः फलम् ॥ ३३॥४२ ।।
अत्रेदं विचार्यते - पुरुषोत्तमविदः कर्मकर्तव्यं न वा ? तत्रमार्गत्रयफलात्मके तस्मिन् संपन्न पुनस्तस्य स्वतोऽपुरुषार्थस्य करण प्रयोजकमिति न कर्त्तव्य मेवेति पूर्वपक्ष: ॥