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( ४४६ ) हैं । जैसा उनकी साधना का उल्लेख है, उस रूप में उनकी साधना भक्ति मार्ग में आवश्यक नहीं है, यह सिद्धान्त की बात है । वह भक्ति ही सत्य आदि साधन रूपा है । उसके प्रादुर्भूत होने पर, जो सत्य आदि ज्ञान मार्ग में विहित होने के कारण बड़े कष्ट से ममाओं द्वारा पालन किये जाते हैं, वे ही भक्त के हृदय में, भगवान् के प्रकट हो जाने पर स्वतः ही आ जाते हैं इसलिये भक्ति मार्ग में उनका साधन अपेक्षित नहीं है।
आदरादलोपः ॥३॥३॥४०॥
ननुनित्यानांवर्णाश्रमधर्माणां भगवद्धर्माणां चैककाले प्राप्तौ युगपदुभयोः करणासम्भवादन्यतरवाधे प्राप्ते कस्य स्यान्न कस्येति स्यात् संशयः । तत्र कर्मणां स्व स्वकाले विहितानामकरणे प्रत्यवाय श्रवणात इतरत्राऽतथा श्रवणाद् अन्यदापि तत्कृतिसम्भवात् सावकाशत्वेन तेषामेव बाधोयुक्तो, नतु निरवकाशानामिति पूर्व पक्षः।
संशय होता है कि-नित्य वर्णाश्रम धर्म और भगवद्धर्म एक साथ तो पालन किये नहीं जा सकते, एक का पालन करने पर दूसरे का बाध तो होगा तो कौन सा धर्म पालन किया जाय कौन सा नहीं ? वर्णाश्रम धर्मों के विषय में तो शास्त्रों में समयानुसार न करने पर प्रत्यवाय बतलाया गया है, भगवद्धर्म के विषय में तो ऐसी कोई बात शास्त्रों में कही नहीं गई हैं, भक्ति धर्म का तो फिर कभी भी पालन किया जा सकता है उनमें कोई बाधा नहीं आती, वर्णाश्रम धर्म पालन में कोई और समय नहीं है, निर्धारित काल में ही उनका आचरण करना चाहिए ये, पूर्वपक्ष है
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तत्र सिद्धान्तमाह-आदरादिति । ब्रह्मयज्ञप्रकरणे तैत्तरीये पठ्यते- "ओमिति प्रतिपद्यत एतद्वै यजुस्त्रयीं विद्यां प्रत्येषा वागेतत्परममक्षरं तदेतत्ऋचऽभ्युक्तमृचो अक्षरे परमेव्योमन् यस्मिन् देवा अधिविश्वेनिषेदुयंस्तन्न वेद किं ऋचा करिष्यति य इतविदुस्त इमे समासते" इति । अत्र ऋक्संबंधित्वेन वर्णात्मके, वस्तुतस्तु परमव्योमात्मके अक्षरे, ब्रह्मोण्योंकारे वर्तमान तल्लोकवेदप्रसिद्ध परं ब्रह्म यो न वेद स किम ऋचाकरिष्यतीत्यनेन तदज्ञाने वेदाध्ययनस्य निष्फलत्वमुच्यते । एवं सति तदुक्त कर्मणोऽपि तथात्वमायाति। एतेन "भक्तया मामभिजानाति "इति वाक्यात् परब्रह्म स्वरूप ज्ञानं भक्तयैवेति भक्ताः सन्तः पुरुषोत्तम विदो ये तेषामेव वेदाध्ययनादिकं फलप्रदं नान्येषा