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सर्वात्म भाव स्वीकार किया है ऐसे भक्तों के संबंध में - "नज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह" इत्यादि भगवद् वाक्य से विधेय का अभाव और असंभावना निश्चित होती है । उन लोगों से कर्मज्ञान विहित भक्ति होना संभव नहीं है, ऐसे लोगों को क्या फल प्राप्त होगा ? इस अकांक्षा की पूर्ति के लिए सूत्रकार कहते हैं—“तन्निर्द्धारण" इत्यादि । वे कहते हैं कि सर्वात्मकभाव वाले भक्तों की दृष्टि धर्मी पर रहती है, धर्मों पर नहीं रहती धर्मों का उद्वेश्य क्या है वे उसी पर दृष्टि रखकर चलते हैं। यहां पर दृष्टि पद ज्ञान मात्र का बोधक है । उक्त ज्ञान का तालर्य है कि वे भक्त अन्य विषयक दर्शन श्रवण आदि ज्ञान से रहित, एक मात्र प्रभु संबंधी ज्ञान वाले होते हैं । ऐसे भक्तों को प्रभु संगम मात्र ही अपेक्षित होता है । उक्त भाव से रहित लोगों में ऐसा नियम नहीं रहता. उन लोगों की फलावाप्ति कर्मानुसार ही होती है । ऐसे लोगों को भक्तों से भिन्न ही फल मिलता है । परमात्मा की भक्ति तो अनिवचनीय एकमात्र अनुभव गम्य होती है, मोक्ष ही जिसका फल होता है, ऐसा शास्त्र मत है । संसारी जीवों को वो फल शास्त्रानुसार नहीं मिलता । भक्ति मार्ग में एकमात्र फल ही साध्य होता है जब कि अन्यत्र धर्मों को साधन मान कर लोग चलते हैं इसलिए भक्त की अनिर्वचनीयता युक्त ही है, यही बात सूत्र में हि शब्द से कही है । ज्ञानमोक्ष आदि से भगवद्भाव का निर्वाध फल होता है । यह सूत्र ऊपर के प्रसंग से संबंधित ही है ।
१६ अधिकरण
प्रदानवदेव तदुक्तम् ||३|३|४३||
अथेदं विचार्यते - सर्वात्मभावो विहित कर्मज्ञानभक्ति साध्यो न वेति । तत्र पुराणे –“ तस्मात् त्वमुद्धवोत्सृज्य" इत्युपक्रम्य " मामेकमेव शरणमात्मानं सर्व देहिनाम्, यहि सर्वात्मभावेन यास्यसे हि अकुतोभयम्” इति वाक्ये मुक्त्या - काकुतोभयसाधनरूप शरण गमने प्रकारत्वेन सर्वात्मभावस्य कथनेन स्व प्रयत्न साध्यत्वं गम्यते । अतः साधन साध्य इति पूर्वः पक्षः ।
अब बिचार करते हैं कि - सर्वात्मभाव भक्ति, विहित कर्म ज्ञान से साध्य है या नहीं ? पुराण में तो - " इसलिए उद्धव तुम त्यागकर " इत्यादि उपक्रम करते हुए "मुझे ही प्राणि मात्र का शरण मानकर जो सर्वात्मभाव से स्वीकारता है, वह निर्भय हो जाता है" इत्यादि वाक्य से मुक्त्यामक निर्भय साधन साधन