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( ४५२ ) अब बिचार करते हैं कि पुरुषोत्तमविद भक्त को वर्णाश्रम धर्म का पालन करना चाहिए या नहीं? इस पर पूर्व पक्ष वालों का कथन है कि-भक्ति योग से, ज्ञानकर्म आदि सभी मार्गों का फल तो प्राप्त हो ही जाता है, फिर भक्ति योग स्वयं ही पुरुषार्थ है अतः अन्य पुरुषार्थों के करने का प्रयोजन ही क्या है ? अतः अन्य धर्मों का पालन नहीं करना चाहिए ।
तत्र सिद्धान्तमाह-निर्धारणेत्यादिना- अत्रेदमाकूतम – भक्तिमार्गेहि मर्यादापुष्टिभेदेनास्ति वैविध्यम् । तत्र मर्यादायां पुष्टौ चैतादृशस्य न कर्मकरणं संभवति । अतएव तत्तरीयकोपनिषत्सु पठ्यते-"आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान न विभेतिकुतश्चन" इति । एतं ह वाव न तपति किम हे साधुनाकरवं किमहं 'पापकरवमिती" तिश्रूयते चोभयविधानामपि कर्मकरणमम्बरीषोद्धवपाण्डवादीनाम । एवं सत्युभय विद्यानांमध्ये "ममकर्म करणे प्रभोरिच्छाअस्ति' इति यो निर्धार यति सकरोति । य एतद् विपरीतं स न करोति । यथा शुकजडादिः । एतन्निर्धारश्च भगवदधीनोऽतो भक्तेष्वपितन्निर्धारण नियमोऽतः कर्म कर्त्तव्यमेवातन्निर्धारणेत्वाधुनिकानाम् । एवं सतीच्छाज्ञानवता तत्संदेहवता च कर्म कर्तव्यमिति सिद्धम् ।
सिद्धान्त रूप से "तनिर्धारण" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं। भक्ति मार्ग में मर्यादा और पुष्टि रूप दो भेद हैं। जिन्होंने मर्यादा और पुष्टि मार्ग में पदार्पण कर लिया है, उनसे ये कर्म होते ही नहीं। इसीलिए तैत्तरीयक में कहा है कि-" आनन्द ब्रह्म का ज्ञाता किसी से नहीं डरता" इत्यादि । वर्णाश्रम और भक्ति संबंधी दोनों प्रकार के कर्म अम्बरीष उद्धव पाण्डव आदि करते थे। “मेरे कर्म करने में प्रभु की इच्छा है" ऐसा निश्चय करने वाले ही दोनों प्रकार के कर्म करते हैं जो लोग इस विचार से भिन्न विचार रखते हैं वे लोग नहीं करते हैं, जैसे शुकदेव जडभरत आदि । उक्त प्रकार के कर्मों का निर्धारण भगवान ने ही किया है, इसलिए भक्त लोग भी उसी भाव से कर्म का पालन करते हैं, उन्हें व कर्तव्य मानते हैं। आधुनिक लोग उन्हें ईश्वर निर्धारित नहीं मानते इसलिए, शास्त्रीय कर्म पर आस्था नहीं रखते। किन्तु ईश्वरेच्छा मानने वाले और संदेह करने वाले दोनों को ही कर्म करने चाहिए यही, निश्चित होता है।
तत्रोभयोः फलम् वदन्नादावाद्यस्याह-तद्दष्टेः, तस्याः भगवदिच्छाया दृष्टि ज्ञानं यस्य स तथा । तस्य जीव कृतकर्मफलात् प्रथग् भिन्नमीश्वरकृत कर्मणे