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मात्र से जीव और परमात्मा का अभेद नहीं सिद्ध होता । अग्रिम जीवन को आनन्दपूर्ण बनाना ही, उपदेश का कार्य है, उससे पूर्वभाव का उपमर्दन नहीं हो सकता । उससे भक्ति की प्रबलता सिद्ध होती है, और ज्ञान में भक्ति सा उत्कर्ष आता है।
व्यतिहारो विशिषन्ति हीतरवत् ३।३।३७।।
ननु "तद् योऽहं सोऽसौ योऽसौ सोऽहं" इति ऐतरेयके तैत्तरोयके च "अहमस्मि ब्रह्महमस्मि" इति पठ्यते । अत्र मध्यस्थं ब्रह्मपदमुभयत्र सम्बध्यते तेनावृत्या व्यतिहारोऽतो ब्रह्माभेदः सिद्धयति । तथा लीलामध्यपाति भक्तानामपि "कृष्णोऽहं अहंकृष्ण" इति भाव उल्लेखश्च श्रु यते । अतस्तदभेदज्ञानं भक्ति फलमिति पंफुल्यमानं प्रतिवादिनं तत्स्वरूपं बोधयति । रसात्मकत्वाद् भक्ते संयोग विप्रयोगात्मकत्वात् द्वितीय भावोद्रेके यथेतरेऽश्रुप्रलापादयो व्यभिचारिभावाः तथातिगाढ भावेन तद्भेदस्फूर्तिरप्येक स च न सार्वदिकस्तदा स्वात्मानं. तत्वेन विशिषंति तं च स्वात्मत्वेन । सोऽत्रव्यतिहार पदार्थ इत्यर्थः ।
अपरंच-उद्देश्यविधेयभावस्कृत नहि अद्वतज्ञानमस्ति किन्तु भावनामात्रं भक्तानां तु विरहभावे तदात्मकत्वमेवाखण्डस्फुरति येन तल्लीलां स्वत: कुर्वान्ति एतद्यथा तथा श्री भागवत दशमस्कन्ध विवृत्तौ प्रपंचितमस्माभिः । एवंसति मुख्यं यदद्वतज्ञानं तद्भक्तिभावैकदेशव्यविचारिभावेष्वेकत रदिति सर्षपस्वर्णाचलयोरिव ज्ञानभक्त्योस्तारतम्यं कथंवर्णनीयमिति भावः ।
ततरीयक और ऐतरेय में पाठ है कि-"अहमस्मि, ब्रह्माहमस्यि "योऽहं सोऽसौ सोऽहं "इत्यादि । इसमें मध्यस्थ ब्रह्म पद दोनों ओर से सम्बन्धित है। आवृत्ति के विनियम से ब्रह्म आभेद सिद्ध होता है । तथा लीला में संलग्न भक्तों में भी "कृष्णोऽहं अहंकृष्णः "इत्यादि भाव का उल्लेख सुना जाता है । इससे ज्ञात होता है कि भक्ति का फल भी अभेद ज्ञान ही है, प्रसन्न प्रतिवादियों की धारणा है। सही बात तो ये है कि-संयोगविप्रयोगात्मक रसस्वरूपा भक्ति में जब अनुभाव का उद्रेक होता है तो अश्रुप्रलाप आदि व्याभिचारि भावों की विक्रिया होती है उसी स्थिति के प्रगाढ़ भाव होने पर अभेद स्फूर्ति भी होती है। वह स्थिति सदा तो रहती नहीं जिससे कि ये कहा जाय कि-भक्त स्वात्म भाव से तत्व को समझता है । वही बात “योऽहं सोऽसौ, इत्यादि उलट फेर.