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( ४४५ ) लिए भगवान ने उसके शरीर को ज्ञानोपदेश संस्कार से संस्कृत कर दिया [इस प्रसंग में शरीर का तात्पर्य सूक्ष्म शरीर से है] भगवान को आत्मा और परमात्मा के अभेद का ज्ञान अभिप्रेत नहीं था, यदि उन्हें ये अभिप्रेत होता तो उपदेश के बाद बदरी जाते हुए उद्धव, विदुर से ये न कहते कि-"विरह से आतुर आत्मावला मैं यहाँ आया हूँ।" इसी प्रकार अन्य भक्तों को दिए गए ज्ञानोपदेश का तात्पर्य भी समझ लेना चाहिए ।
अत्रोपदेशान्तर पदं प्रस्तुतोपदेशभिन्नमुपदेशान्तरमाहेति प्रस्तुत्य तस्यान्यस्याभावादभेदपदेनाभेदोपदेश एवोच्यते। एतेन भगवान् स्वोयानां भक्तिभाव प्रतिबन्ध निरासायैव सर्व करोतीति ज्ञापितं भवति । अथवोपदेशान्तरवदित्यस्यायमर्थः । शरीराद्यध्यासवतस्तदभिन्न आत्मा तत्वं, न तु शारीरादिरित्युपदेशो ज्ञानमार्गे यथा क्रियते तेन शरोरादावात्मबुद्धया यः स्नेहादिः सोपगच्छति । तथाऽत्र सर्वेषामात्मनो ह्यात्मा “य आत्मनि तिष्ठन्" इत्यादि श्र तिसिद्धो जीवात्मनोऽप्यात्मा पुरुषोत्तम इति बोध्यते । तेन पुरुषोत्तमे निरुपधिः स्नेहस्तत्संबंधित्वेनात्मनि स सिद्धयति । यद्य प्येवं भावः पूर्वमध्यादेव, तथापि सहजस्य शास्त्रार्थत्वेन ज्ञानेऽतिप्रमोदो दाढ्यंच भवतीति तथा । मैतावता जीवाभेद आयाति । अग्ने जीवन संपत्तिरेवोषदेशकार्य, न तु तेन पूर्वभावोपमः संभवतीति सारम् । तेन ज्ञाने सर्वाधिक्यं मन्वानाय भक्ति बलप्रदर्शनं च सिद्धयति ।
सूत्र में जो उपदेशान्तर पद दिया गया है, वह प्रस्तुत उपदेश से भिन्न दूसरे उपदेश का द्योतक है, उपमें अन्य के अभाव का अर्थ निहित है, सूत्रस्थ अभेद पद अभेदोपदेश का द्योतन कर रहा है। इस प्रकार सूत्र का तात्पर्य होता है कि भगवान, अपने भक्तों के भक्तिभाव के प्रतिवन्ध के निरास के लिए ही सब कुछ करते हैं । अथवा उपदेशान्तर की तरह ही यह अर्थ है । शरीर आदि अध्यास को तरह उससे अभिन्न, आत्मा तत्व भी है, ज्ञानमार्ग में शरीरादि में आत्मबुद्धि से स्नेह प्राप्त होता है, वैसा उपदेश यहाँ नहीं है। यहाँ तो अभेदोपदेश में, सभी आत्माओं का आत्मा उसे बतलाया गया है। 'य आत्म नितिष्टन् “इत्यादि श्र ति से सिद्ध जीवात्मा का भी आत्मा पुरुषोतम निश्चित होता है । इससे पुरुषोत्तम में, आत्मा का स्वाभाविक स्नेह सिद्ध होता है । यद्यपि उसका स्नेह भाव पहिले से ही रहता हैं, शास्त्रार्थ से जो उसके सम्बन्ध में सहज ज्ञान होता है उससे वह स्नेह अतिदृढ़ हो जाता है। इतने