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( ४४४ ) भक्त की विग्रह अलौकिक होती है उसमें लौकिक भूत समुदाय को अनुभूति संभव नहीं है, वैसा होना बहुत हो छोटी बात होगी । लौकिक भूत समुदाय स्त्री पुत्र पशु आदि, ब्रह्मानंदानुभव, में बाधक हैं, वैसे ही भजनानंदानुभव में अपने आत्मारूप से होने वाला भगवद् ज्ञान बाधक है ।
अन्यथा भेदाऽनुपपत्तिरितिचेन्नोपदेशान्तरवत् ।३३।३६।।
ननु भक्त ष्वप्युद्धवादिषु ज्ञानोपदेशः श्र यते । स चात्मब्रह्माभेद ज्ञानफलक इत्यात्मत्वेन ज्ञानाभावे तदभेदोपदेशानुपपत्तिः स्यादिति तन्मन्तव्यमेव । एवं सति भक्तिमार्गात् ज्ञानमार्गस्योत्कर्षश्च सिद्धयति, इत्याशंवय परिहरति- उपदेशान्तरवदिति । न ह्यत्राभेद ज्ञानायोपदेशः, किन्तु यथाग्रिमस्वर्गापवर्गाख्य पारलौकिकानन्द फलक अलौकिके कर्मणि अधिकार रूप संस्कारार्थ गायत्र्युपदेशः क्रियते, तत्संस्कार संस्कृत तच्छरीरादिकमपि भूतादिभिरपि नोपहतं भवति । यथा वा योगोपदेश संस्कृतस्य वपुरग्न्यादिभिर्नोपहन्यते तथा प्रकृते भक्तिभावस्य रसात्मकत्वेन संयोग विप्रयोगभावात्मकत्वाद् द्वितीयस्य प्रलयानलादतिकरालत्वेन कदाचिद् भावोदये तेन भक्तवपुरादेस्तिरोधानेऽग्रिमभजनानंदानुभवप्रतिबन्धः स्यादिति, तन्निवृत्यर्थ ज्ञानोपदेश संस्कार संस्कृतं तद् वपुरादिकं भगवता क्रियते, नत्वात्माभेद ज्ञानं भगवतोऽभिप्रेतमित्यर्थः अन्यथोपदेशानन्तरं वदरों गच्छन् विदुरं प्रति "इहागतोऽहं विरहातुरात्मा" इति न वदेत् । एवमेवान्येष्वपि भक्तषु ज्ञेयम् ।
उद्धव आदि भक्तों में ज्ञानोपदेश सुना जाता है, जो आत्मा और ब्रह्म के अभेद का प्रतिपादक था, आत्मत्व ज्ञान के अभाव में उस अभेदोपदेश की बात नहीं बन सकती, वहीं उस उपदेश का मन्तव्य था। इससे तो, भक्तिमार्ग से ज्ञानमार्ग का उत्कर्ष सिद्ध होता है । इस संशय का परिहार करते हुए कहते हैं "उपदेशान्तरवत्" इत्यादि । कहते हैं कि-उद्धव को जो ज्ञानोपदेश दिया गया वह अभेद परक नहीं था, अपितु जैसे कि आगे प्राप्त होने वाले, स्वर्गापवर्ग पारलौकिक आनंदफलक, अलौकिक कर्म में अधिकार प्राप्त कराने वाले संस्कार के रूप में गायत्री का उपदेश दिया जाता है, उस संस्कार से संस्कृत उस साधक के. शरीरादि और भूतादि उपहत नहीं होते । अथवा जैसे योगोपदेश से संस्कृत साधक का शरीर अग्नि आदि से उपहतं नहीं होता, वैसे ही, संयोगविप्रयोग रसात्मक भक्तिभाव वाले उद्धवं का शरीर कहीं आतकराल प्रलयानल से दग्ध होकर होने वाले भजनानंदानुभव में बाधक न हो, इस संभावना के निवारण के