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साधन से मुक्ति मिली, इसलिए नियम नहीं है कि-कोई एक साधन हो मुक्ति प्रदान करता है, ऐसा मानने से प्रत्येक साधनों की महत्ता बतलाने वाली श्रुतियों में परस्पर विरुद्धता भी होगी, इसलिए सब मिलकर एक साथ मुक्त करते हैं ऐसा ही मानना चाहिये उसी से सब कुछ संगत हो जाता है । इस संशय को निवृत्ति के लिये भी सूत्रकार-"शब्दानुमनाभ्यां" पद का प्रयोग करते हैं । सूत्रकार का कथन है कि प्रत्येक साधन को श्रुति स्मृति में, मुक्ति का साधक कहा गया है । सवको एक साथ मिलकर समवेत साधक नहीं कहा गया है । जब प्रत्येक में मोक्ष प्रदानकता है, तो वे सब मिलकर भी कर सकते हैं इसमें कहने को क्या बात है ? अर्थात् वह तो स्वतः सिद्ध बात है। सूत्रकार ने जो उक्त पद का प्रयोग किया है उसे श्लिष्ट प्रयोग जानना चाहिये ।
१०. अधिकरण :
यावदधिकारनवस्थितिराधिकारिकाणाम् ।३।३।३२॥
पूर्व मुमुक्षुभिमुक्तिसाधनत्वेन क्रियमाणानां भगवद्धर्माणां मुक्तिसाधन प्रकारो विचारितः । अधुना तु भगवान् स्वविचारितकार्य लौकिकै मर्यादि अशक्यं ज्ञात्वा स्वैश्वर्यादिकं दत्वा येन जीवेन तत् कारयति स जीवः तैः धर्मैः मुक्तो भवति न वा ? इति विचार्यते।
पूर्व अधिकरण में मुमुक्षुओं द्वारा मुक्ति के साधन के रूप में किये जाते श्रवण कीर्तन आदि भागवत धर्मों के मुक्ति साधन पर विचार किया गया । अब ये विचार करेंगे कि-भगवान्, स्वविचारित कार्य लौकिक ऐश्वर्य आदि को अशक्य जानकर जिन जीवों को स्वऐश्वर्य आदि देकर भोग कराते हैं, वे जीव उनसे मुक्त होते हैं या नहीं ?
तत्र जीवकृत भगवद्विषयक धर्माणां यत्र तत् साधकत्वं तत्र भगवदीयानां धर्माणां तत्साधकत्वं सुतरामेव । तेषां स्वकृत्यऽसाध्यत्वेनाविधेयत्वात्ततत्साधनेष्वप्रवेशेऽपीति संदेहे निर्णयमाह-यावदित्यादि । यस्मिन् जीवे यत् कार्य साधनार्थमधिकारो भगवता दत्तस्तत् कार्य साधनक्षमास्तस्मिन् ये स्वधर्मा भगवता स्थापितस्ते आधिकारिका इत्युच्यन्ते । तत्कायें संपत्तिरेव तदधिकारप्रयोजनमिति तावदेव तेषां तस्मिन् स्थितिरित्यर्थः । एवं सतितत् संपत्तौ सोऽपि निवर्तत इति तत्संबंधिनो धर्मा अपि निवर्तन्त इति मुक्तिपर्यन्त न तेषां व्यापार संभवो.