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( ४३४ ) मपि कल्प्येत् । स्मृतिरपि-"केवलेन हि भावेन गोप्योगावः खगामृगाः येऽन्येमूढधियो नागाः सिद्धामामीयुरंजसा, एतावान् सांख्ययोगाभ्यां" इत्युपक्रम्य "अन्तेनारायणस्मृतिः इत्यादि रूपवमेवाह । इममेवार्थ ह्रदिकृत्वाह सूत्रकारः शब्दानुमानाभ्याम्' इति । श्रुतिस्मृतिभ्यामित्यर्थः। तेचोक्ते । एतेने सूत्राकारस्यान्यो अप्यनुशयोऽस्तीति भाति । यत्रोक्त साधनस्तोमसंपत्तिकस्मिन्, भक्तोऽस्ति तत्र केनैवमुक्तावितरसाधनत्व बोधक श्र तिविरोधाच्छ्वणकीर्तन स्मरणानां मुक्त्य व्यवहितपूर्वक्षणे युगपदपि सम्भवादन्यथासिद्धिसंभवे विनिगमकाभावादेकेनैव मक्तिरिति न नियमोऽतः प्रत्येक साधकत्व बोधिकानां सर्वासां श्रु तीनां मिथोविरोधः तहि एकत्र तथात्वे सर्वत्रैव तथाऽस्तु इत्याशंक्य तत्र बाधकमाह शब्दानुमानाभ्यामिति । पूर्ववत् । तत्र प्रत्येकमपि शुक्तिहेतुत्वमुच्यत् इति न तथेत्यर्थः । यत्र प्रत्येकमपि तथात्वं तत्र किमुवक्तव्यं समुदितानां तथात्व इति भावः तेनश्लिष्टः प्रयोगोऽयमिति ज्ञेयम् ।
यदि कहें कि-दण्ड चक्र आदि प्रत्येक घट के हेतु हैं फिर भी कोई भी अकेले घट का निर्माण नहीं कर सकते, वैसे ही श्रवण आदि मुक्ति के साधक हं ते हुये भी अकेले साधक नहीं हो सकते, सब मिल कर ही मोक्ष प्रदान कर सकते हैं । ये कथन असंगत है-जो अर्थ जिस प्रमाण में लागू होता हैं, उसी में उसकी सार्थकता होती है, उसी प्रकार श्रबण आदि के सम्बन्ध में भी मानना चाहिये दन्ड आदि की समवेत उपादेयता तो प्रत्यक्ष दृष्टिगत होती है अतः उसे तो. वैसा ही मानना चाहिये, किन्तु श्रवण आदि साधनों की मुक्ति प्रदानकता अलौकिक वस्तु हैं, जो कि एक मात्र शास्त्र से ही ज्ञात होती हैं । जैसा श्र तियों से ऊपर जान चुके हैं। ये नहीं कह सकते कि-श्रुतियाँ भी उक्त न्याय से ही निर्णायक होती है । अलौकिक तत्व में, लौकिक नियम से निर्णय करना संभव नहीं है। यदि ऐसा न होता तो प्रजा की सृष्टि में ब्रह्मा, मन से निपेक आदि की भी कल्पना करते । “केवलेन हि भावेन" इत्यादि में स्पष्ट रूप से उक्त बात का ही ससर्थन किया गया है। इसी बात को हृदय से मानकर सूत्रकार ने कहा शब्दानुमानाभ्याम् “अर्थात् श्रति स्मृति से ऐसा ही निर्णय होता है । इस सूत्र कार की उक्ति में दूसरा भाव भी परिलक्षित होता है कि मान लीजिये कोई एक भक्त श्रवण कीर्तन आदि सभी साधनों को करता है, उसकी मुक्ति किसी एक ही साधन से हो जाय तो अन्य साधनों की महत्ता बतलाने वाली श्रुति की बात निस्तत्व हो जायेगी, मुक्ति के पूर्व के क्षण तक श्रवण कीर्तन स्मरण आदि यदि एक साथ होते रहें तो ये कहना कठिन होगा कि- किस