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( ४४० ) मुक्त्वा, “परः तस्मात्त भावोऽन्यः" इत्युपक्रम्य "तद्धाम परमं मम" इत्यन्तेन अक्षर स्वरूपमुक्तम् । अत्र पूर्व क्षरस्वरूपमुक्तम् इति परस्तमात्वित्त्यत्र क्षरादेव परत्वमुच्यते । तच्छब्दस्य पूर्णपरामर्शित्वात्तस्यैव पूर्वमुक्तत्वादतएवाक्षरव्यावर्तकस्तु शब्दः उक्तः । एतेन नित्यत्वेन क्षरणाभावात् अक्षर शब्देन जीव एवोच्यते, न तु पुरुषोत्तमाधिष्ठानभूतो जीवातीत इति निरस्तम् । यं प्राप्यन निवर्तन्ते' इतिवाक्याज्जीवे तथात्वासंभवात् । नित्यमुक्तत्त्वापत्या शास्त्रवैफल्यापत्तेश्च । इतएव ज्ञानमागिणां तत् प्राप्तिरेव मुक्तिरिति ज्ञेयम् । ततोऽनिवृत्तेः । 'पुरुषः स परः पार्थ" इत्यनेनाक्षरात् परस्य स्वस्य भत्तयेकलभ्यत्वं उक्तम् । तेन ज्ञानमार्गीयाणाम् न पुरुषोत्तम प्राप्ति इति सिद्धम् । “यस्यान्त: स्थानि" इत्यनेन परस्यलक्षणमुक्तम् । तच्चमृत्सादि प्रसंगे श्री गोकुलेश्वरे स्पष्टमुच्यते । तेनाक्षरोपासकानां न पुरुषोत्तमोपासकत्वम् । तषियक श्रवणादेरभावादिति भावः। “अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमांगतिम्" इति वाक्यात् “स याति परमागतिम्" इतिवत्याक्षरमैव यातीत्यर्थों ज्ञेयः । . जैसे कि श्रवणादि साधनों को पुरुषोत्तम संबन्धी होने से उनकी प्राप्ति के हेतु बतलाया गया, वैसे ही उन्हें अक्षर प्राप्ति के हेतु मानने में क्या प्रतिपत्ति है ? इस संसय का उत्तर, आसुरी जीवों के अज्ञानांधकार की निवृत्ति के लिए उदित यदुवंशीयांचल चूडामणि भगवान श्री कृष्ण द्वारा ही दिया जा चुका है, मेरा कुछ कहना उचित नहीं है। इस भाव से सूत्रकार कहते हैं तदुक्तम्, अर्थात भगवान भगवदगीता में स्पष्ट कह चुके हैं। गीता में—''यदक्षरं वेदविदोवदंति" से लेकर “स याति परमांगतिम्" तक अक्षर प्राप्ति का उपाय बतलाकर "अनन्य चेताः सततम' से अपनी प्राप्ति के उपाय की विलक्षणता कह कर, अपनी भक्तयेकसम्यता को बतलाने के पूर्व क्षर और अक्षर का स्वरूप बतलाते हैं। "सहस्रयुगपर्यन्तम्" से लेकर "प्रभवंनि अहरागमः" तक क्षर का स्वरूप बतलाकर "परस्तस्मात्तु भावोऽन्यो" से लेकर "तद्धाम परमं मम्" तक अक्षर का स्वरूप बतलाया । इसमें पहले क्षर का स्वरूप बतलाया 'परस्तमात्त" • इत्यादि में क्षर को अक्षर से श्रेष्ठ बतलाया। तत शब्द से पूर्व परामृष्ट क्षर से श्रेष्ठ वक्षर को बतलाने के लिए तु शब्द से पूर्व वस्तु का निराकरण किया गया है। नित्य और क्षर से रहित होने के कारण अक्षर शब्द जीव वाची है, पुरुषोत्तम अधिष्ठान भूत जीवातीत का वाची नही है। “यं प्राप्य न निवर्त्तन्ते' इस वाक्य से निश्चित होता है कि जीव में वैसी क्षमता नहीं है। अक्षर शब्द को जीव वाची मानने से "नित्य उक्ति' में वाधा पड़ेगी और शास्त्र भी निर