________________
( · ४४१ ) र्थक हो जायेगा। ज्ञानमागियों की, अक्षर प्राप्ति रूप, मुक्ति हो होती है । "पुरुषः स परः पार्थ" इत्यादि वाक्य से भगवान, अक्षर से पर अपने को, एक मात्र भक्ति से ही लभ्य बतलाते हैं । इससे निश्चित होता है कि ज्ञानमागियों को पुरुषोत्तम प्राप्ति नहीं होती। "यस्यान्तः स्थानि" इत्यादि से पर का लक्षण बतलाया है, मृत्सादि के प्रसंग में गोकुलेश्वर ने स्पष्ट कहा है । इसलिए अक्षरोपासकों को पुरुषोत्तम उपासक नहीं कह सकते अक्षीपासकों के लिए श्रवण आदि साधनों का कहीं उल्लेख नहीं है । “अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्माहुः परमांगतिम्" इस वाक्य से “स याति परमागतिम्" वाक्योल्लेख्य अक्षर तत्व का हो बोध होता है।
विच तैत्तरीयोपनिषत्सु पठ्यते-“यस्मिन्निदं संच विचैति सर्व यस्मिन देवा अधिविश्वे निषेदुः, तदेवभूतं तदुभव्यम इदं तदक्षरे परमेव्यो मन् । येनावृतं खंच दिवं महीं च येनादित्यस्तपति तेजसा भाजसा च यमन्तः समुद्र कवयो वयन्ति यदक्षरे परमे प्रजा।" इति अत्राक्षरात्मकत्वेन क्षरात्मकादाकाशात् परमेव्योम्नि भक्तानां हृदयाकाश इति यावत् । तत्र प्रकाशमानमित्यर्थात् । अतएव "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इत्युपक्रम्य "सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" यो वेद निहतं गुहाया परमे व्योमन्" इत्येदतदुपनिषत्स्वेवपठ्यते । “यदक्षरे परमे प्रजा" इति पद्मवयन्तीत्यनेन संबंध्यते । अत्र प्रजा पदात् व्यापि वैकुण्ठात्मको लोकोऽक्षर पदेनोच्यते इत्यवगम्यते । अतएव न यत्र मायेत्यादिना श्री भागवते तत्स्वरूप मुच्यते । कानाक्षरस्य पुरुषोत्तमाधिष्ठानत्वं निश्चीयते। इतोऽक्षरातीतः पुरुषोत्तम इत्यवगम्यते । एवं सति सामान्यं भगवद् विभूतिरूपत्वं तद्भावस्तस्य पुरुषोत्तमस्य भावः सत्ता उक्तरीत्या तत्र स्थितिरिति यावत् ताभ्यां हेतृभ्यां. तथेत्यप्यों ज्ञेयः।
तैत्तरीयोपनिषद् में “यस्मिन्निदं संच" इत्यादि में, अक्षरात्मक रूप से, क्षरात्मक आकाश से श्रेष्ठ, परमव्योम भक्तों के हृदय आकाश का वर्णन किया गया है । उसे प्रकाशमान बतलाया गया है इसलिए "ब्रह्मविदाप्नोति परम् सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म 'यो वेदनिहतंगुहायां परमे व्योमन्" इत्यादि रूपों में उसका उल्लेख किया गया है । “यदक्षरे परमे प्रजा" इत्यादि पद भी उक्त तत्त्व से ही संबंधित प्रतीत होता है । प्रजापद से व्यापक वैकुण्ठ लोक ही अक्षर पद से कहा गया है । "नयत्र माया" इत्यादि से श्रीमद्भागवत में उसके. स्वरूप का उल्लेख किया गया है। इससे अक्षर तत्व की पुरुषोत्तमाधिष्ठानता