________________
( ४३६ ) "ओपसदवत्" इति । उपसदाख्ये कर्मणि तानूनप्त्रस्पर्शाख्यमौपसदं कर्मास्ति"तत्रातिथ्यायां ध्रौवात् रुचि चमसे वा यदाज्यं चतुरवत्तं वा समवद्यति तत्रानूनप्त्रम्' इत्युच्यते "अनाधृष्टमसीति" मन्त्रेण षोडशाप्यत्विजो यजमानेन सह "तानूनप्त्रं समवमृशन्त्यनु मे दोक्षाम्" इति मंत्रेण यजमानस्तत्समवमृशन् यम ऋ त्वजं कामयेताऽयंयज्ञं यशसमृच्छेदिति तं प्रथममवमर्शयेदिति श्रूयते श्रुतौ कल्पे च । अत्र सर्वेषामृत्विजां तानूनप्त्रत्वाविशेषेऽपि यस्मिन् स्नेहातिशयेन तथेच्छा तत्रैव तथा कृतिर्नेतरेषु । न हि तत्राविशिष्टेषु कथमेवं कृतिरिति पर्यत्रुयोगः सम्भवत्येवमिहापि इत्यर्थः ।
अब संशय होता है कि-अक्षर तत्त्व सामान्य है तो उसके उपासकों को उसकी प्राप्ति हो जाती है और उनका उसी में लय हो जाता है, उनमें से कुछ भक्ति कैसे प्राप्त कर लेते हैं ? इस आशंका पर हेतु दृष्टान्त उपस्थित करते हैं कि-जैसे उपसद नामक यज्ञीय कर्म में "तानूनग्न स्पर्श" नामक कर्म होता है, उसमें "आतिथ्यायां ध्रौवात् रुचि" इत्यादि कहा जाता है तथा “अनाधृष्टमसि" इस मंत्र से सोलह ऋत्विज यजमान के साथ पढ़ते हैं। "तानूनप्त्रं समवमृशन्ति अनु मे दीक्षाम्' इस मंत्र से यजमान, ऋत्विज को समवमृशन् करने की कामना करता है इस पर "अयं यज्ञं यशसमृच्छेत्" इत्यादि प्रथम परामर्श, ऋत्वज यजमान को देता है । इस कर्म का उक्त प्रकार श्रुति और कल्प दोनों में मिलता है । इस कर्म में तानूनप्न कर्म, सामान्य रूप से, सभी ऋत्विजों का अभिषेय है । जिस विधि में जिसका अतिस्नेह हो वह स्वेच्छा से उस विधि के अनुसार तानूनपन्न कर्म करे उसे पूरी विधि करना आवश्यक नहीं है। उन उन सामान्य विधियों में अमुक प्रकार ही कैसे कार्य सिद्धिकर सकेगा ? ऐसा संषय जैसे उक्त कर्म के विषय में किया जा सकता है, वैसा ही संशय अक्षर के संबन्ध में भी है । [जो कि निरर्थक है ]
ननु श्रवणादेर्यथा पुरुषोत्तम संबंधित्वेन तत्प्राप्तिहेतुत्वमेवमक्षरस्याप्यस्ति इत्याशंका तु निखिलासुरजीवतमः पुजनिरासकेन यदुवंशोदयाचालचूड़ामणिनैव निरस्तेति न स्वतोवक्तुमुचितेत्याशयेनाह-तदुक्तम इति- भगवदगीतास्विति शेषः । तथा “यदक्षरंवेदविदोवदंति" इत्युपक्रम्य "सयाति परमांगतिम्" इत्यन्तेन अक्षर प्राप्त्युपायमुक्तवा 'अनन्य चेताः सततम्" इत्यादिना श्वप्राप्तयुपायं वैलक्षण्यं चोक्तवा भक्तयेकलभ्यत्वं स्वस्य वक्तु पूर्व क्षराक्षरयोः स्वरूप माह । 'सहस्र युगपर्यन्तं" इत्युपक्रम्य "प्रभवत्यहरागमः" इत्यन्तेनक्षर स्वरूप