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( ४३८ ) की बात नहीं है । "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" श्रुति में भी, अक्षर ब्रह्म के ज्ञाता की, अक्षर से पर तत्व की प्राप्ति बतलाई गई है। "अक्षरादपि चोत्तम" इस भगवद् वाक्य से, अक्षर से अतीत पुरुषोत्तम हैं ऐसा ज्ञात होता है । "भक्त्या माम भिजानाति" इत्यादि वाक्य में "माम्" पद से पुरुषोत्तम विषयक ज्ञान की बात कही गई है, अक्षर विषयक ज्ञान की नहीं।
किं च ब्रह्मभूतस्य भक्ति लाभोक्तेस्तस्य चानंदांशविर्भावात्मकत्वात्तस्य चाविद्यानाशजन्यत्वात्तस्य चाक्षर ज्ञानजन्यत्वात् पूर्व कक्षा विश्रान्तमेवाक्षर ज्ञानम् । एवं सत्यक्षरविषयिणा धियां श्रु तौ मुक्ति साधनेषु योऽवरोधः प्रवेशनं गणनेति यावत् स सामान्यत्वभावाभ्यां हेतुभ्यां पुरुषोत्तमसंबंधि संबंधे मुक्तिरिति सामान्यम् । मर्यादामार्गे अंगीकृतानां "ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति, समः सर्वेषुभूतेषु मभक्ति लभते पराम्" इति वाक्यात् ब्रह्मभावानन्तरमेव भगवद्भाव संभवात्तेन पुरुषोत्तमे प्रवेशात्तत्र परम्परोपयोगी ब्रह्मभावत्तयेत्युभाभ्यां हेतुभ्यां तथेत्यर्थः । वस्तुतस्तु पुरुषोत्तम प्राप्तिरेव मुक्तिरिति भावः ।
"ब्रह्मभूत व्यक्ति को भक्तिलाभ होता है" इस उक्ति से ज्ञात होता है कि, ब्रह्मभूत में परमात्मा के आनंदांश का आविर्भाव हो जाता है जिससे उसकी समस्त अविद्या का नाश हो जाता है, ये स्थिति अक्षर ज्ञान होने पर ही होती है, इससे निश्चित होता है कि अक्षर ज्ञान, मुक्ति मार्ग का प्रथम विश्राम स्थल है । अक्षर विषयक बुद्धि से, जिस श्रुति में, मुक्ति साधनों में अवरोध दिखलाया गया है, वो प्रवेश की दृष्टि से ही है । ज्ञान और भक्ति इन दो हेतुओं से पुरुषोत्तम संबंधी मुक्ति ही सामान्य रूप से बतलाई गई है । मर्यादा मार्ग को स्वीकारने वाले भक्तों की तो-"ब्रह्मभूत व्यक्ति प्रसन्न रहता है, न कुछ सोचता है न आकांक्षा करता है, प्राणिमात्र में सम भाव रखता है और मेरी परा भक्ति प्राप्त करता है" इत्यादि वाक्य से ब्रह्मभाव के बाद ही भगवद् भाव की प्राप्ति बतलाई गई है। पुरुषोत्तम में प्रवेश पाने के लिए प्रथम ब्रह्मभाव प्राप्ति आवश्यक है, अतः ज्ञान और भक्ति दोनों ही इस दृष्टि से समान हैं। वस्तुतः तो पुरुषोत्तम प्राप्ति ही मुक्ति है, यही निश्चित मत है।
__नन्वक्षरस्याविशिष्टत्वेन तदुपासकानामपि तथात्वत्केषांचित् तत्रैव लयः, केषांचिद् भक्तिलाभ इति कथमुपपद्यत इत्यांशक्य तत्र हेतु दृष्टान्तेनाह