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( ४३६ ) भगवता तथैव विचारितत्वान्मुक्ति भक्त्यैवेति भावः । यच्च-"ब्रह्मणा सह ते मवें संप्राप्त प्रतिसंचरे, परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशंति परं पदम्" इति वाक्यं, नत्त्वाकल्पान्तं येषामधिन ।रः सप्तर्षि प्रभृतीनां तद्विषयकमिति ज्ञेयम् । अन्यथा भगवदत्ताधिकार सामर्थ्यस्य भरतस्य स्वाधिकार समाप्तौ मुक्ति न वदेत् । कृतात्मान इतिपदात्तेषामपि भगवति कृतान्त करणानामेव परस्य भगवतः पर पदेव्यापि वैकुण्ठे प्रवेश उच्यते न त्वाधिकारिक गुणैः।।
दो बातें हैं, एक तो जीव के द्वारा किये गए भगवद् विषयक धर्मों की मोक्ष साधकता, दूसरे भगवदीय धमों को मोक्ष साधकता, इन दोनों में भगवदीय धर्म तो असाध्य है अतः उनका विधान तो संभव नहीं है, उनकी साधनों में गणना हो भी कैसे सकती है। इसका निर्णय "यावत्' इत्यादि सूत्र से करते हैं। कहते हैं कि जिस जीव में जिस कार्य के साधन के लिए भगवान ने जो अधिकार दे रक्खा है, जीव उसी को कर सकता है, उनमें भी जो स्वधर्म भगवान ने निश्चित किये हैं वे ही आधिकारिक कहे जाते हैं । उनके करने से ही भक्ति होगी, वही उन कार्यों के अधिकार का प्रयोजन है, भक्ति पर्यन्त ही उन कार्यों में जीव की संलग्नता रहती है 1 उसके बाद साधक उनसे निवृत्त हो जाता है अतः उससे संबद्ध धर्म भी निवृत्त हो जाते हैं । मुक्ति पर्यन्त उनका व्यापार संभव भी नहीं है, भगवान ऐसा विचार कर साधक को भक्ति प्रदान करते हैं, वही उसकी मुक्ति है । जैसा कि-"वे सब प्रति सृष्टि में ब्रह्मा के साथ रहते हैं, फिर वे कृतार्थ होकर परं पद को प्राप्त कर लेते है" इत्यादि में कल्पपर्यन्त अधिकार वाले सप्तर्षियों के विषय में जो कहा गया है, इससे भक्त के अधिकार की बात निश्चित होती है। यदि ऐसा नहीं मामेंगे तो. भगवत प्रदत्त अधिकार प्राप्त समर्थ भरत की स्वाधिकार की समाप्ति हो जाने पर जो मुक्ति गाथा प्रसिद्ध है, वह सुसंगत न हो सकेगी। उक्त उदाहरण में जो "कृतात्मानः" पद दिया गया है उससे ज्ञात होता है कि उन सप्तर्षि आदि के अन्तःकरण में जो भगवद् भक्ति है उसी के आधार पर वे भगवान के परमपद को प्राप्त हो जाते हैं । उक्त वाक्य में आधिकारिक गुणों की चर्चा भी नहीं है ।
११. अधिकरण :अक्षरधियांत्वविरोधःसामान्यतस्तद्भावाभावाभ्यामोपसदवत्तदुक्तम् ।
३॥३॥३३॥ ननूक्ताऽथर्वणोपनिषद्वाक्य भगवद् धर्माणां मुक्तिसाधनत्वमुच्यते ।