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है । उक्त कथन का तात्पर्य है कि - "परमात्मा उससे अच्छा कर्म कराते हैं जिसे यमलोक से ऊपर उठाना चाहते हैं" इत्यादि श्रुति से ज्ञात होता है कि- भगवान् सृष्टि के प्रथम ही निर्णय कर लेते हैं कि - "इस जीव से ऐसा कर्म कराकर ऐसा फल देना चाहिए" इसके अनुसार ही होता है । उक्त रीति से तो मुक्ति साधनानुगम में हेतु अवश्य मानना होगा । इस प्रकार से कृति, साधन और साध्य, ज्ञान और भक्तिरूप है, ऐसा शास्त्र से ज्ञात होता है । उन दोनों से विहित मुक्ति, मर्यादा है । उन दोनों से रहित भी, स्वरूप बल से प्राप्त कराने वाली मुक्ति, पुष्टि है । जिस जीव को प्रभु, जिस मार्ग से स्वीकारते हैं, उस जीव को उस मार्ग में प्रवृत्त कर तदनुसार फल प्रदान · करते हैं, ऐसा मानने से ही उक्त बात सुसंगत हो सकती है । पुष्टि मार्ग में अंगीकृत जीव के लिए ज्ञान आदि अपेक्षित नहीं होते, मर्यादा मार्ग में अंगीकृत जीव के लिए वे अपेक्षित होते हैं, यही बात सही है । साधकत्व रूप से दोनों मार्गों में भिन्नता दिखलाई गई है । यदि उक्त बात नहीं मानेंगे तो शास्त्र कथन में विरुद्धता होगी । अर्थात् मर्यादा पुष्टि भेद की व्यवस्था न मानने पर ही विरुद्धता होगी। विरोध का उपपादन पूर्वपक्ष ग्रन्थ में कर चुके हैं। प्रश्न होता है कि - श्रवणादिरूपा और प्रेमरूपा भक्ति सामान्य रूप से एक समान ही पापक्षय करती हैं अथवा किसी में कोई विशेषता भी है ? आजकल के भक्तों को दुःखी देखा जाता है, शास्त्रों में श्रवण आदि से पापनाश की बात कही गई है, इसलिए सामान्यतः पापनाश की बात मानना असंगत है । देखने से तो ऐसा ही निश्चित होता है कि - श्रवण आदि रूप भक्ति पाप की स्थिति में भी होती है । प्रेमरूपा भक्ति, पापनाश होने पर ही होती है, ये उसकी विशेषता है । प्रेमी भक्त अक्रूर ने स्यमन्तक मणि के प्रसंग में भगवान के साथ कपट किया, इससे ये शंका भी समाप्त हो जाती है कि - पापनाश के बिना भक्ति नहीं होती । मर्यादा पुष्टि भेद को स्वीकारने से दोनों की विलक्षणता निश्चित हो जाती है, अतः मर्यादा मार्ग में अंगीकृत जीवों की -मुभुक्षु भाव से ही प्रवृत्ति होती है, तथा भगवान के द्वारा दिये जाने से प्रेमा भक्ति की प्रवृत्ति होती हैं, अकारण प्रवृत्ति नहीं होती । कभी-कभी मुक्ति की इच्छा न होते हुए भी, भक्ति साधन में संलग्न भक्तों को, उस भक्ति से ही "मुक्ति हो जाती है, "अनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुक्ते" इत्यादि वाक्य में मुक्ति - को भक्ति का स्वभाव बतलाया गया है। इस मार्ग में, श्रवण आदि से पापक्षय हो जाने से प्रेमोत्पत्ति होती है और फिर मुक्ति हो आती है ।