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( ४२६ ) होकर उनको नष्ट करते हैं । भक्त कहलाने के बाद जोव स्वयं ही विकर्म नहीं कर सकता, कुसंगवश यदि कुछ कर भी बैठता है तो उसे वह अपना न मानकर, किसी प्रकार हो गया, ऐसा ही कहता है अन्यान्य कर्मों का त्यागकर एकमात्र 'भगवत्सेवा में संलग्न पांड्यदेश के राजा इन्द्रद्युम्न को पूज्य अगस्त्य ऋषि के आगमन की प्रतीति नहीं हुई, उक्त प्रकार के भक्त की विकर्म में अरुचि हो, इस भाव को दिखलाने के लिए ही, पांडयराज के प्रसंग में-"स्वपादमूलं इत्यादि श्लोक कहा गया है तथा यह दिखलाया गया है कि जैसे पाण्ड्य नरेश द्वारा विकर्म होने पर भी उन्होंने भक्ति का त्याग नहीं किया वैसे ही प्रत्येक भक्त को भक्ति का आश्रय कदापि नहीं छोड़ना चाहिए, भगवान स्वयं ही विकर्मजन्य पाप का नाश कर मुक्त करेंगे अपनी भक्ति वल' की स्फूर्ति से, दोष युक्त व्यक्ति को भी, प्रभु, "इसे कृतार्थ करू गा" ऐसा विचार कर उसके हृदय में विराजे हुए ही, संसर्गज दोष को, उक्त प्रकार के अंगीकार के आधार पर ही नाश कर देते हैं, यही भाव "धुनोति" इत्यादि पद से दिखलाया गया है। चिरकाल भोग्य को भी प्रभु, उसी क्षण नाश कर देते हैं । उस नाश में काल' आदि का प्रतिबन्ध नहीं रहता इससे हो, परमात्मा को काल आदि का स्वामी कहा गया है। इस प्रसंग में ये सिद्ध कर दिया गया है कि-विकर्म की स्थिति में, भजन आदि हृदय में रहते हैं।
८. अधिकरण :
उपपन्नस्तल्लक्षणार्थोपलब्धेर्लोकवत् ॥३॥३॥३०॥
ननु मुक्तेरेव सर्वत्र फलत्वमुच्यते, युक्तं चैतत्, संसृतेर्दुःखात्मकत्वात्, तन्निवृत्तेः सर्वे पानिष्टत्वात् । पुष्टिमार्गीय भक्तानां तदनपेक्षितत्वमुच्यते । तदुक्तमथर्वणोपनिषत्स्वष्टादशार्णमंत्रस्वरूपमुक्त्वा पठ्यते "परब्रह्मैतद्यो धारयति" इत्यादेरन्ते “सोऽमृतोभवति" इत्यादि । एतदग्रे-"किं तद् रूपं कि रसनम् कथमैतद् भजनम् १" इत्यादि प्रश्नोत्तरं पठ्यते-"भक्तिरहस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैराश्येनैवामुष्यात्मनः कल्पनमेतदेव नेषकर्म्यम्" इति । एतदत्र विचार्यते-मंत्रवृत्ति तदधिष्ठातृ रूपध्यानादेरमृतत्वफलमुच्यते । भजनस्वरूपं च यावत् फलनैराश्येन भगवत्यात्मनः कल्पनमित्युच्यते । न च फलनैराश्येन भजतेऽप्यन्ते मुक्तिरेव भवित्रीति वाच्यम् । “तं यथा यथोपासते तथैव भवति तद् हैतान् भूत्वा अवति" इति श्रुतेमुक्ति साधनत्वेन ज्ञात्वा भजतः सैव फलम् । स्वरूपस्यैव स्वतंत्र पुरुषार्थत्वमनुभवन् यो भजते तस्य तदेव फलमिति यतो