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शास्त्रज्ञान और भगवत्सम्बन्ध दोनों ही समान हैं इनमें कोई बड़ा छोटानहीं है । “कौन बड़ा है ?" इस संशय पर दोनों को गूढाभिसंन्धि का उल्लेख किया गया है । मुमुक्षु भाव से ही अनन्य भक्ति करने का भाव हो सकता है । इस बात को "तल्लक्षणार्थोंपलब्धेः “इत्यादि में कहा गया है । तल्लक्षण अर्थात् भगवत्तत्त्वरूपात्मक जो अर्थ है, स्वतन्त्र पुरुषार्थ रूप से उसकी उपलब्धि होती है । उसको प्राप्ति स्वतन्त्र रूप से होती है । यद्यपि सायुज्य मोक्षा-- वस्था में जीव का प्रवेश पुरुषोत्तम में होता है और उसमें आनंदानुभूति भी होती है, किन्तु प्रभु, उस जीव के वशंगत नहीं होते क्योंकि उस जीव में भक्ति का तिरोभाव रहता है । अपितु प्रभु उससे विपरीत हो जाते हैं । भजनांनन्द. को विशेषता तो-"भगवान् मुक्ति तो दे भी देते हैं, भक्ति किसी-किसी को हो देते हैं "भक्त लोग मुक्ति दिये जाने पर भी मेरो सेवा के अतिरिक्त उसे ग्रहण नहीं करते “सब कुछ नारायण परक हो है" इत्यादि उपक्रम करके "भक्त. लोग स्वर्ग अपवर्ग नर्क आदि सभी को समान भाव से देखते हैं" इत्यादि वाक्यों में स्पष्ट रूप से कही गई है। इसीलिए सूत्र में सामीप्यवाची उपसर्ग का प्रयोग किया गया है । जिससे दासो भाव, दासभाव और लोला में सौहार्द भाव से प्रभु को निकटता की स्थिति लक्षित होती है।
न च महत्पदार्थ स्वरूपाज्ञानादल्प एवानन्दे यथा सर्वाधिक्यं मन्वान: पूर्वोक्त न वांच्छन्ति तथाऽत्रापीति वाच्यम् । दीयमानात्रामर्थानां स्वरूपाज्ञाना सम्भवात् । अनुभवविषयी क्रियमाणत्विस्यैवात्र दीयमान पदार्थत्वात् तदज्ञाने स्वर्गादित्रये तुल्यदर्शित्वासंभवश्च । “मुक्ति ददाति कहिंचित् स्म न भक्तियोगम् इति वाक्ये भक्तराधिक्यं स्पष्टमेवोच्यते । तस्मात्न्यूनार्थ जिघृक्षोः सकाशत् पूर्णार्थवान् महान् इति युक्तमेवास्योपपन्नत्त्वम् । इममेवार्थ दृष्टान्तेनाहलोकवदिति । यथा स्वाधीन भर्तृ का नायिका तदवस्थाऽननुगुण गृहवित्तादिक दीयमानं अपि नोरीकरोति तथेत्यर्थः ।
ऐसा नहीं कह सकते कि-बड़ी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न होने से जैसे लोग छोटी वस्तु के आनन्द से तृप्त हो जाते हैं, वैसे ही स्वर्गादि के स्वरूप का ज्ञान न होने से भजनानन्द को बड़ा मान लिया गया है। दिये जाने वाले पदाथों का स्वरूप ज्ञान न हो, ऐसा असंभव है । अनुभूत पदार्थों की ही, दिये जाने पर छोटे बड़े रूप में परख कर स्वीकृति होती है। यदि उनका ज्ञान न.