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अन्वय करते हैं । सब शरीरों में तो जीव का सम्बन्ध ही प्रतीत होता है, इस संशय के निराश के लिये, उक्ति के अर्थ की उपपत्ति करते हैं : आनन्दमय ही सव शरीरों का अभिमानी आत्मा हो सकता है। उक्त प्रकरण में स्पष्ट रूप से " एष एव " ऐसा निर्द्धारणात्मक प्रयोग किया गया है, जिससे दूसरे का निषेध और आनन्दमय का ही आत्मा होना निश्चित होता है ।
३ अधिकरण :
कार्याख्यानादपूर्वम् |३|३|१८||
तैत्तरीयके पठ्यते - " तस्माद् वा एतस्मादात्मन् आकाशः संभूतः" इत्युपक्रम्य महाभूत सृष्टिमुक्त्वाम्नायते - “ पृथिव्या ओषधयः, ओपधीभ्योऽन्नम्, अन्नात् पुरुषः, स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः" इति एतदग्रे ऽन्नस्यउत्पत्तिस्थितिलयहेतुत्वमुक्त्वा अग्र े – “योऽन्नं ब्रह्मोपासते " इत्युच्यते । भृगुवरुण संवादे च "अन्नं ब्रह्म ेति व्यजानात्" इत्युच्यते । तत्र “स वा एव पुरुषोऽन्नरसमयः" इत्यनेन पुर्वोक्त एव पुरुष उच्यते, उत तद्भिन्नः ? इति भवति संशयः । किमत्र युक्तम् ? पूर्वोक्त एवेति यतः पूर्वोक्तस्यैव, "स वा एष" इत्यनेन प्रत्यभिज्ञानं प्रतीयते तत्र ब्रह्मत्वेनोपासनाकार्या इत्यभिप्रायेण "ब्रह्मत्वेन स्तूयते" इति प्राप्तः ।
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वैत्तरीय में - " तस्माद् वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः " ऐसा उपक्रम करते हुए महाभूत सृष्टि बतलाकर कहते हैं कि - "पृथ्वी से औषधियाँ, औपधियों से अन्न, अन्न से पुरुष हुआ, यही पुरुष अन्नरसमय है ।" इसके बाद अन्न को उत्पत्ति स्थिति और लय को कारण रूप से बतलाकर - " जो अन्न ब्रह्म की उपासना करते हैं" ऐसा कहा गया । भृगुवरुण संवाद में भी "अन्न को ब्रह्म ही जानो" इत्यादि कहा गया । इस पर संशय होता है कि- "स वा एष पुरुषोऽनसमयः' इत्यादि से पूर्वोक्त पुरुष का ही उल्लेख है अथवा उससे भिन्न का ? सही क्या है ? विचारने पर तो पूर्वोक्त का उल्लेख ही समझ में आता है । पूर्व का ही 'स वा एष' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा से उल्लेख किया गया प्रतीत होता है | ब्रह्मत्वभाव से उपासना करनी चाहिए इस अभिप्राय से ही बहाँ' "ब्रह्मत्वेन स्तूयते" इत्यादि कहा गया है।
आह् — “ कार्याख्यानादपूर्बम्" इति । पूर्वस्यान्नकार्यस्य पुरुषस्याख्यानात्, 2 स वा एष" इत्यनेन अग्रिम श्रुतिभिर्ब्रह्मत्वेन प्रतिविपादयिषितमन्नरूपमेवोच्यते,