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( ४०१ ) तस्माद् हेतोरित्यर्थः ।। अन्नदमयादिषु सर्वेष्वानंदमयस्यवोक्तत्वात् तत्तच्छतेराभिमानित्वात् तथा । एतद्यथा तथाऽनंदमयाधिकरणे प्रपंचितमस्माभिः अथवाऽन्योन्तर आत्मा इत्यन्नमयादन्यत्र सर्वत्रोक्तत्वात् पूर्व निरूपितो “यः स इतर" इत्युच्यते । तथा च "यः पूर्वस्येति" श्रुत्येतरवत् पूर्व निरूपितवत् प्रकृतस्याप्यात्मग्रहण कथनं यदुत्तरादिति पूर्ववत् ।
उक्त द्विविधा का निराकरण करते हैं-इतर जीव की तरह परमात्मा का, आत्म शब्द से उल्लेख किया गया। "यही शरीर आत्मा है" यह उत्तरस्थ वस्तु के लिये कहा गया हैं "जो पूर्व का है" इस सब जगह की उक्ति से ऐसा ही समझ में आता है, क्योंकि सबके उत्तर से 'आनन्दमय' ही है, उसी को सब का आत्मा कहा गया प्रतीत होता है । अन्नमय आदि सभी में, उन शरीरों के अभिमानी रूप से आनन्दमय को ही बतलाया गया है। इसका विश्लेषण आनन्दमय अधिकरण में भी हमने किया है । "अन्योऽन्तरात्मा" ऐसा भी सब जगह कहा गया है, अन्नमय को छोड़ दिया गया है, पूर्व निरूपित वस्तु को ही 'यः स इतर" ऐसा कहा गया है तथा-"यः पूर्वस्य" इत्यादि श्रुति इतर की तरह अर्थात् पूर्व निरूपित की तरह, प्रकृत वस्तु को आत्मा बतला रही है, जिससे भी यह निर्णय होता है कि जो उत्तरस्थ है वही पूर्व की तरह है।
अन्वयादिति चेत् स्यादवधारणात् ।३।३।१७॥
ननु सर्वत्राऽन्योन्तर आत्मेतिश्रुत्य-प्रत्येकमन्नमायादीनां भेदनिरूपणाच्छारीर पदाच्च भिन्नो भिन्नो जीव एवात्मा शरीराभिमानी सर्वत्रोच्यते । आनन्दमयेऽपि तथोक्तिर्यासात्वानंदमयस्य ब्रह्मत्वेन व्यापकत्वेन सर्वत्रान्वयात् । सर्वेषु शरीरेषु संबंधात् इत्याशंक्य तन्निरासायोक्तऽर्थ उपपत्तिमाह-स्यादित्यादिना, आनन्दमय एवोक्त सर्व शरीराभिमानी भवतीत्यर्थः तन्न हेतुरवधारगादिति । एष एवेत्येवककारेणेतरनिषेधपूर्वकमानंदमयस्यैवात्मनिर्धारादित्यर्थः ।
(संशय) अन्नमय से लेकर आनन्दमय पर्यन्त हर जगह, अन्योत्तर आत्मा है इत्यादि श्र ति से तो यही ज्ञात होता हैं कि-अन्नमयादि सभी भिन्न हैं और शरीरपद से शरीराभिमानी भिन्न-भिन्न जीव ही आत्मा है । आनन्दमय में भी वैसी ही उक्ति है, जिससे ब्रह्मत्व रूप से व्यापक आनन्दमय का सब जगह