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( ४१० ) राणायनीय उपनिषद् के अन्तिम भाग में पाठ है कि-"ब्रह्म ज्येष्ठा वीर्या संभृतानि" इत्यादि । इसका तात्पर्य है कि अन्य ब्रह्मा इन्द्र आदि, परम पुरुष की सहायता से ही अपना विक्रम दिखलाते हैं, अर्थात् उन पराक्रमी देवताओं में ब्रह्म ही सर्वश्रेष्ठ है, उन्हीं की अपेक्षा से वे सब सृष्टि आदि कार्य करते हैं। अन्य के पराक्रमों का पुरुष के बिना, भंग भी हो सकता है, इससे ये निश्चित हुआ कि वे अपना पराक्रम नहीं रखते, वे सब ब्रह्म वीर्य हैं, ब्रह्म से ही प्रेरित बलवान हैं। वो ज्येष्ठ ब्रह्म, इन्द्र आदि के जन्म के प्रथम हो दिव्य स्वर्ग में व्याप्त हैं, नित्य ही विश्वव्यापक हैं।
देशतोऽपरिच्छेदमुक्त्वा कालतोऽपि तमाह, ब्रह्मेतिभूतानामाकाशादीनां 'पूर्वमेवजज्ञ, आविर्बभूवेत्यर्थः । एतेनवीर्यसंमृतिधुव्याप्तिभृति माहात्म्यमुक्त भवति । तथा च संभृतिश्चद्युब्याप्तिश्च तयोः समाहारस्तथा । एतावत्यपि मति तत्र नोपसंहार इति । तत्र हेतुः, न वा विशेषादि सूत्रोक्त एवेत्यतिदिशत्यत एवेति । एतद्यथा तथा तत्रैवोक्तम् ।
परमात्मा की देश संबंधी अपरिच्छिन्नता बतलाकर काल अपरिच्छिन्नता "ब्रह्मभूतानां प्रथमं तुजज्ञ" इत्यादि से वतलाते हैं अर्थात् वे “आकाशादि के प्रथम ही प्रकट थे।" इसी से उनके वीर्यसंभृतिधुव्याप्ति आदि माहात्म्य सिद्ध होते हैं । इन समस्त विशेषताओं का भी आविष्ट स्वरूप में उपसंहार नहीं होगा, "न वा विशेषात्" सूत्र में किये गये एव के अतिदेश से ऐमा निश्चित होता हैं, इस पर जो कुछ भी वक्तव्य था वो कही चुके हैं ।
विषयवाक्योत्तरार्दोक्त धर्मानुद्दे शेनैवं ज्ञायते, भक्तस्यैहिकपारलौकिक प योगिधर्मोपलक्षणार्थ द्वयोरेवोद्देशः कृत इति । चकारेण दर्शनमप्युक्तं ममुच्चीयते । अन्यच्च स्पर्धकृति संभावनायां हि तद्योग्यता निषेधः संभवति । सा चाविभूत एव भगवति संभवति इत्यखिलशक्ति आविर्भावपूर्वकमाविभूतस्य तस्य एतया श्रुत्या माहात्म्यमुच्यत इति गम्यते । एवं सत्येतद वाक्योक्त धर्मयोरेवानुप संहार्यत्वेन यत् कथनं तत्तु भक्तह्रद्याविभूतं ब्रह्माऽप्येवं भूतमेवेति ज्ञापनाया तो युक्त एवानुपसंहारः।
विषय वाक्य के उत्तराद्ध में कहे गये धर्मों के उद्देश्य से ये ज्ञात होता है कि भक्त के ऐहिक पारलौकिक उपयोगी धर्मों के उपलक्षण के लिए हो दोनों उद्देश्य हैं चकार का प्रयोग बतलाता कि भक्त के हृदय में दर्शन