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सान्योपायन शब्दमात्र नतु साम्य पदार्थः स्वारसिकोऽत्रास्तीति भाव प्रकटनाय शब्द शब्द उक्तः । न तु तैरेव धर्मः साम्यं नेतरैरित्यत्र को हेतुरित्याकांक्षायामाह उपायन शब्दशेषत्वादिति । परमुपैतीति य उपायन शब्दस्तच्छेषत्वात साम्योपायनस्येत्यर्थः । ब्रह्म सम्बन्ध हेतुकत्वादानंदांशाद्याविर्भावस्य तदैव साम्योपायन कथनात्तैरेव धर्मः साम्यमभिप्रेतमिति भावः।
आथर्वणिक में पाठ है कि-"तब विद्वान पुण्य पाप को छोड़कर परम निरंजन की समता प्राप्त करता है" इसमें परम्पद से ब्रह्म की चर्चा की गई है। तथा बतलाया गया है कि-सक्रिय अविद्या से रहित, परम को प्राप्त करता है, उसके बाद साम्य प्राप्त करता है । इस पर विचारते हैं कि-साम्य का तात्पर्य समान जातीय धर्मता से है या उनमें से कुछ धर्मों से है ? दूसरी चात मानने से तो, ब्रह्म ममानता होती नहों। "उसके समान या अधिक नहीं दीखता" इस श्रुति से विरोध होने से पहिली बात का ही आश्रय लेना चाहिए । उक्त श्रुति में-किन धर्मों की समता बतलाई गई है ? इस आकांक्षा पर कहते हैं- "हानौ" ब्रह्म से जीव का जो विभाग हुआ है उसे हानि कहते हैं । उस स्थिति में जो आनंदेश्वर्य आदि जीवनिष्ठ धर्म हैं जो कि भगवदिच्छा से तिरोहित हो जाते हैं, ब्रह्म संबंध हो जाने से वो पुनः आविर्भूत हो जाते हैं, उन्हीं को समता प्राप्ति कहा गया है। भगवान् में आनंदादि पूर्ण रूप से हैं तथा जीव में अल्परूप से हैं, केवल नाम से ही उनकी धर्म समता मानकर जीव के ब्रह्मसाम्य की चर्चा की गई है। वस्तुतः इन धर्मों की पूर्ण समता की चर्चा नहीं है । इस प्रकार "न तत्सम' इत्यादि श्रति भी अविरुद्ध हो. जाती है । इसीलिए सूत्रकार ने ''साम्यमुपैति" के साम्य शब्द को उपायन शब्द मात्र माना है, साम्य पदार्थ का स्वारस्य नहीं स्वीकारा है । इसी भाव को सूत्रकार शब्द, शब्द से दिखलाते हैं । उन्हीं धर्मों की समता नहीं होती न दूसरे धर्मों की ही होती है, इसका क्या कारण है ? इस आकांक्षा पर सूत्रकार कहते हैं-"उपायन शब्द शेषत्वात्" अर्थात् परमुपैति में जो उपायन शब्द है उसकी शेषता से ही साम्योपायन का अर्थ ध्वनित होता है। ब्रह्म संबंध होने से आनंदादि अंशों के आविर्भाव की बात साम्योपायन से ध्वनित होती है, उन्हीं धर्मों की समता उक्त कथन में अभिप्रत है।
नन्वानंदादीनां ब्रह्म धर्मत्वात् तत्साम्य कथनं तदभेदमेव गमयतीत्याशंक्य तद् धर्मवत्वमात्रस्य न तदभेदसाधकत्वमित्यत्र दृष्टान्तमाह-कुशेत्यादि ।