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( ४२२ ) "मुक्तानामपिसिद्धानां नारायण परायणः, सुदुर्लभः प्रशान्तात्माकोटिष्वपि महामुने जन्मान्तर सहस्रषुतपोध्यान समाधिभिः, नराणां क्षीणपापानां कृष्णो भक्तिः प्रजायते जन्मान्तर सहस्रषु समाराध्यवृषध्वजम् वैष्णवत्वं लभेत् कश्चित् सर्वपापक्षयादिह” इत्यादि वावयैः पापनाशानन्तरमेव भक्ति संभवाद् भक्तस्यततव्यपापादेरभावान्न ज्ञानमार्गीय तुल्यता इत्यर्थः।
उक्त प्राप्त मत पर "सम्पराय" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं। सम्पराय अर्थात् परलोक अथवा परपुरुषोत्तम का आय अर्थात् ज्ञान पूर्णरूप से पुरुपोत्तम ज्ञान है जिससे वह संपराय अर्थात् भक्ति मार्ग है । अथवा पर पुरुषोत्तम में अयन अर्थात् गमन प्रवेश, पूर्ण रूप से ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग अर्थात् भक्ति मार्ग है। इत्यादि व्याख्याओं से उक्त सत्र का तात्पर्य होता है कि-ज्ञानमार्ग में अक्षर प्राप्ति तथा भक्तिमार्ग में पुरुपोत्तम प्राप्ति होती है । इस विशेपता को बतलाने के लिए ही सूत्रकार ने “सम्पराय" आदि सूत्र की योजना की है । उक्त सूत्र का तात्पर्य है कि- भक्ति के पूर्व ही पापनाश हो जाता है। "मुझे भक्ति से जानता है" इस भगवद् वाक्य से यह निदिचत होता है किभक्ति लाभ के बाद पुरुषोत्तम स्वरूप ज्ञान होता है, इसलिए भगवान् एकमात्र भक्ति से ही साध्य हैं । जैसा कि- "हे महामुनि करोड़ों मुक्त सिद्ध प्रशान्तात्माओं में कोई एक नारायण परायण दुर्लभ भवत होता है । हजारों वर्षों तक किए गए तपध्यान समाधि से जब मनुष्यों के पाप क्षीण हो जाते हैं तब कृष्ण भक्ति होती है । हजारों जन्मों तक वषध्वज के भजन करने के बाद ही समस्त पापों के क्षय हो जाने पर वैष्णवता प्राप्त होती, है ।" इत्यादि वाक्यों से निश्चित होता है कि-पाप नाश के बाद ही भवित होती है, भक्त के लिए, पार होने योग्य पाप का अभाव रहता है, इसलिए ज्ञानमार्ग के साथ उसकी समानता नहीं हो सकती।।
ननु य एवं वेदेति सामान्यवचनात् पुरुषोत्तमविदो अपि एवमेवति चेत्तत्राह-तथाह्यन्ये, तधा ज्ञानानन्तरमिति पापवन्तोऽन्ये भक्तिमार्गीयेभ्योऽन्य इत्यर्थः । उक्त वचन रूपोपपत्तिर्हि शब्देन ज्ञाप्यते ।
यदि कहें कि-"य एवं वेद" इस सामान्य वचन से तो पुरुषोत्तम को जानने वाले को भी ज्ञानमार्गी के समान व्यवस्था होगी ? उस पर सूत्रकार "ह्यन्ये" पद का प्रयोग करते हैं अर्थात् उक्त वचन भक्तिमागियों से अन्य