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( ४२३ ) पापयुक्त ज्ञानमागियों से ही संबंधित है । हि पद से उक्त वचन के स्वरूप की उपपत्ति होती है।
ननु भक्तिमार्गीयाणामपि गोपस्त्रीगां “दुःसहस्रेष्ठ विरह तीव्रतापधुताशुभाः, ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निवृत्या क्षीण मंगलाः” इति वचनेन दुष्कृतसुकृतयोरपि हानि श्रवणात् पूर्वोक्त वचन विरोध इत्याशंकायामुत्तरं पठति
भक्तिमार्गीय गोपियों के विषय में भी उल्लेत आता है कि "भगवान के अत्यन्त असह्य विरह के तीब्र ताप से उनके अशुभ धुल गये तब उन्हें ध्यान में अच्युत का आश्लेष प्राप्त हुआ जिससे उनके शुभ भी क्षीण हो गये" इस वचन में सुकृत और दुष्कृत के नाश होने का स्पष्ट वर्णन है जो किउपयुक्त कथन के विरुद्ध है । इस संशय का उत्तर देते हैं
छन्दत उभयाविरोधात् ।३।३।२८।।
छन्द इच्छा तथा च भक्तिमार्गीयाणामपि पूर्व पापनाशो यः स भगददिच्छा विशेषतोऽनो भक्ते ; पूर्वमेव पापनाश निरूपकाऽतन्नाश निरूपक वचन योरविरोधात् हेतोभक्तः पूर्वमेव पापनाश आवश्यक इत्यर्थः । एवं सति भक्तः पूर्वमेव तन्नाश औत्सर्गिकः । स क्वचिद् विशेषेच्छयाऽपनोद्यत इति भावो ज्ञापितो भवति । अत्रेच्छा विशेषे वक्तव्य बहुत्वेऽपि किचिंदुच्यते-चिकीर्षित लीला मध्यपाति भक्तान् सोपविस्नेहवत्यो न सगुणविग्रहा, न वा सुकृतादियुक्ता इति ज्ञापयितु कतिपय गोपीस्तद् विपरीत धर्मयुक्ताः कृत्वा तस्यां दशायां स्वप्राप्तौ प्रतिबन्धं कारयित्वा स्वयमेव तां दशां नाशाय स्वलीलामध्य पातिनीः कृतवान् इति । न ह्येतावता सादिकं एवाऽयं भावो भवति । नहि मन्त्र प्रतिबद्ध शक्तिराग्निदाहक इति तत् स्वाभावत्वमेव तस्य सार्वदिकमिति वक्तुं शक्यम् । एतच्च श्री भागवत दशमस्कंध विवतो प्रपंचितमस्माभिः।
छन्द अर्थात् इच्छा, भक्तिमार्गीय जीवों के पूर्वनापनाश का प्रसंग भगवान् की विशेष इच्छा पर ही निर्भर है पूर्वपापनाश के निरूपक और नाश न होने के निरूपक वचनों की विरूद्धता भगवदिच्छा मानकर ही निरस्त होती है। भक्ति के पूर्व पापनाश आवश्यक है । भक्ति पूर्व जो पापनाश है वह औत्सनिक