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वाजसनेयी की एक शाखा में “स एष नेति नेति' इत्यादि से उपक्रम करके "न व्यथते' इस अन्तिम वाक्य तक ब्रह्म का स्वरूप बतलाकर जो ऐसे ब्रह्म स्वरूप का ज्ञाता है, वह कृतार्थ होता है इस अभिप्राय से आगे कहते हैं-"अतः पापमकरवमतः" इत्यादि । इसके बाद "यष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य” इत्यादि ऋचा से ब्रह्मवेत्ता का माहात्म्य बतलाकर कहते हैं कि- "इस प्रकार जानकर व्यक्ति शान्त दान्त, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा आदि प्राप्त कर आत्मा में ही आत्मा को देखता है सभी को ब्रह्मरूप से देखता है" इत्यादि कह कर अन्त में कहते हैं “य एवं वेद" इत्यादि । इस प्रकरण में, ज्ञान को संसार से मुक्त होने का हेतु मानकर, पापों से पार होने का उपाय ब्रह्म ज्ञान को मान कर उसका माहात्म्य वर्णन किया गया है । अथर्वणोपनिषद् आदि में तो मुक्ति का हेतु भगवद्भक्ति को माना गया है । "इस परब्रह्म को जो धारण करता है" जो भजन करता है वह अमर हो जाता है "वह संसार से मुक्त हो जाता है" इत्यादि । इस संबंध में जो व्यवस्था की उसे तो पहिले ही बतला चुके हैं, इसलिए यहाँ कुछ नहीं कहेंगे । संदेह तो केवल इतना है कि-"जो इस प्रकार जानता है वह पापों से मुक्त हो जाता है" इस वाक्य में ज्ञानदशा में भी पाप का अस्तित्व माना गया है, यदि ऐसा नहीं है तो उद्धार किससे होगा ? यही बात भक्ति दशा में भी घटित होती है या नहीं ? संशय इस बात का है । भक्ति संबंधी श्रुति में तो सामान्य रूप से पापनाश की बात कही गई है। मुक्ति के पूर्वकाल में, पाप का नाश अवश्यम्भावी है, ऐसा एक जगह निर्णय कर चुके हैं । शास्त्रार्थ दूसरे प्रकार का भी हो सकता है इसलिए भक्ति दशा में भी पापस्थिति रहती है और उसका नाश होता है, ऐसा ही निर्णय होता है।
इति प्राप्त आह -सम्पराय इत्यादि । संपरायः परलोकस्तस्मिन् प्राप्तव्ये सतीत्यर्थ । अथवा पर पुरुषोत्तमः तस्यायो ज्ञानम् । तथा च सम्यग् भूतं पुरुषोत्तम ज्ञानं येन स संपरायो भक्तिमार्ग इति यावत् । अथवा परे पुरुषोत्तमे अयनं अयो गमनं प्रवेश इति यावत्तथा च सम्यक्परायो येन स तथा भक्तिमार्ग इत्यर्थः । ज्ञानमार्गेऽक्षरप्राप्तया, भक्तिमार्गे पुरुषोत्तम प्राप्तया, तस्माद् विशेषमत्र ज्ञापयितुमेवं कथनमतो भक्तेः पूर्वमेव पापनाशो युक्त इति भावः । ब्रह्मभूतस्य भक्तिलाभानन्तरं "भक्तयामामभिजानाति" इति भगवद् वाक्यात् पुरुषोत्तम स्वरूप ज्ञानस्य भक्त्यैकसाध्यत्वात् तथा । एवं सति