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जो लोग उक्त प्रकार के भगवदाविष्ट महापुरुषों के महत्व को जान लेते हैं, वे सोचते हैं कि हम तो इनके भजन से ही भगवान को प्राप्त कर लेंगे, इस लिए वे उन्हीं का भजन करते हैं, वे ही भक्तिमार्गीय हैं उन भक्तों को, भक्त के हृदय में आविर्भूत रूप में धर्मों का उपसंहार नहीं करना चाहिए यहो आगे के सूत्र में बतलाते हैं।
न वाऽविशेषात् ।३।३।२१॥ ___ अनुपसंहारे हेतुरविशेषादिति । अस्य भक्त भक्तत्वेन तद्भजन रसास्वादनेन विस्मृततदाविष्ट भगवन्कत्वेन तन्निरपेक्षत्वेन बा तदाविष्ट भगवति गुणोपसंहारेऽनुपसंहारे वा भक्तोपासनायां विशेषाभावादित्यर्थः । अनुपसंहारस्यात्र बाधकत्वाभाव ज्ञापनाय वा शब्दः । विशेषादिति वा । पूर्व विहितत्वेन भगवदाकारादिषु भजनं कुर्वन्नप्युक्त रूप भक्त संगेन तद्भजनेन च पूर्वस्माद् विशिष्टं रंसमनुभूतवानिति रसास्वादे विशेषात् गुणोपसंहारं स न करोतीत्यनुवादः । विहितत्वेन गुणोपसंहार पूर्वकोपासनायां नीरसत्वेनाऽनादर ज्ञापनाय बा शब्दः । भगवदवताररूपोऽपि बादरायणः प्रासंगिकेऽपि भक्तिमार्ग स्मरणे तदीयरसा वेश परवशस्तभाव स्वभावमनूक्तवान् ।
अनुपसंहार में, अविशेष हो कारण है। भगवान के भक्तों के जो भक्त हैं वे भजन के रसास्वाद से आत्मविभोर भावापन्न होकर आनंदित रहते हैं, उन्हें भागवत धर्मों को भी अपेक्षा नहीं रहती। अतः उनके हृदय में आविष्ट भगवस्वरूप में, भगवदीय धर्मों का उपसंहार हो या न हो कोई महत्व की बात नहीं है, भक्तोपासना में तो विशेष भाव ही महत्वपूर्ण है । अनुपसंहार की बाधा के अभाव का द्योतक सूत्रस्थं वा शब्द है । अर्थात् विशेष भाव की स्थिति में, उपसंहार हो या न हो कोई अन्तर नहीं आता । शास्त्रविहित भगवदाकार आदि के चिन्तन में लीन भक्त भी, उक्त प्रकार के रसोपासक भक्तों के साहचर्य से जब उनको भजन प्रणाली का आश्रय लेते हैं तब उन्हें पूर्व से अधिक रसानुभूति होती है, विशेष रसास्वाद में लीन होने से वे भगवदीय धर्मों का उपसंहार नहीं करते । यद्यपि गुणोपरहार पूर्वक उपासना शास्त्र विहित है, किन्तु वह नीरस है इसलिये अनादरणीय है, यही सूत्रस्थ वा शब्द ज्ञापन कर रहा है। भगवान के अवतार होते हुए भी बादरायण जी ने, भक्ति मार्ग स्मरण में प्रासंगिक गुणोपसंहार को महत्व नहीं दिया क्योंकि वे स्वयं प्रभु के रसावेश से पर वश थे। .......