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शित उस रूप में, उपासक को बह्म के समस्त धर्मों का उपसंहार करना चाहिए या नहीं ? ऐमा विकल्प से शंकासमाधान दो सूत्रों से करते हैं। पहिले विधिपक्ष का उल्लेख करते हैं
सम्बन्धादेवमन्यत्रापि ॥३॥३॥२०॥
अन्यत्रापि जीवेऽप्येवं ब्रह्मणोवोपासना कार्या । तत्र हेतुः 'सम्बन्धादिति । अयोगोलके बह्विरिव तस्मिन्नावेश लक्षणः संबंधोऽस्तीति, तत्वेन व्यवदेशाच्च तथेत्यर्थः । अत्रैवं ज्ञ यम् अयंतु जीवोऽत्राविष्टं भगवन्त महमुपास इति जानाति चेत् तदा न सा जोवगामिन्युपासना, किन्तु ब्रह्मगामिन्येव । तत्राखिल धर्मोंपसंहारे न किंचिद् बाधकम् । यत्र ब्रह्मवेनैव ज्ञात्वोपास्ते तत्रापि तं यथायथो पाससे तथैव भवति तद् हैतान् भूत्वाऽवतोति श्रुतेगुदिौ जीवत्वबुद्धि निषेधाच्च, तथा तत्र यादृगुपासकस्तदुपासना सिद्ध्यर्थं तत्फलदानार्थ च तादृग्रूपो भगवान आविशति इति च तथा ।
'भगवदावेश से आवेशित जीव में भी ब्रह्म की तरह उपासना करनी चाहिए, जैसे कि-लोहे के गोले में अग्नि का आवेश होता है तो वह अग्नि रूप हो हो जाता है, वैसे ही जोव भी, परमात्मा का आवेश सम्वन्ध होने से वैसा हो जाता है, उस रूप से तत्व का उपदेश देने से वह वही होता है । वस्तुतः उपासक, जब यह समझ लेता है कि-इस जोव में आविष्ट भगवान को में उपासता कर रहा हूँ तो, उसकी वो उपासना जीवगामिनी न होकर ब्रह्म गामिनी हो होती है । उस स्थिति में समस्त ब्रह्म धर्मों का उपसंहार करने में कोई बाधा नहीं है जहाँ ब्रह्मत्र ज्ञान से उपासना को जाती है वहाँ जिस जिस भावना से उपासना करते हैं, उपास्य का वैसा ही स्वरूप. हो जाता है । "तद्हैतान भूत्वा अवति'' इस श्रुति में गुरु आदि में जीवत्व बुद्धि का निषेध किया गया है, इससे भी उक्त बात को हो पुष्टि होती है । जैसा उपामक होता है, उसकी उपासना को सिद्धि के लिये भगवान उस रूप में आविष्ट होकर फल देते हैं।
यस्त्वन्तरंग भगवद्भक्त हदि आविर्भूत भगवत्कं ज्ञात्वा एनद्भजनेन अहं भगवन्तं प्रास्यामि इति ज्ञात्वातमेवभजते स भक्तिमार्गीय इति भक्त हृद्याविभूत रूपे उपसंहारो धर्मागां तैन कार्य इत्य ग्रमं पठति ।