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होता भी है या नहीं ये संदिग्धता है [अर्थात् प्रभु के अलौकिक धर्मों का आरोप करने वाले भक्त के हृदय में दर्शन की बात संदिग्ध ही है] परमात्मा के अलौकिक धर्मों के प्रति स्पर्धा करने की जहाँ सम्भावना भी होती है, वहां उक्त साक्षात्कार होने की बात का निषेध किया गया है, अर्थात् उस स्थिति में साक्षास्कार नहीं होता । उक्त अलौकिक धर्मों के उपसंहार की बात तो भगवान के अवतारों में ही सम्भव हो सकती है। परमात्मा समस्त शक्ति के सहित ही प्रकट होते हैं, उनके माहात्म्य को ही इम श्रुति से बतलाया गया है। अतः उक्त वाक्य में कहे गये धर्मों के अनुपसंहार के विषय में जो कहा गया है, वह भक्त हृदय में आविर्भूत ब्रह्म से संबंधित है । इसलिए उक्त प्रकार में अनुपसंहार मानना सुसंगत है।
४ अधिकरण :पुरुष विद्यायामिव चेतरेषामनाम्नानात । ३ । ३ । २४ ॥
तैत्तरीयके-"सहस्रशोर्षा पुरुषः सहसाक्षः सहस्रा पात ,सभूमि 'विश्वतोवृत्वा अत्यतिष्ठद् दशांगुलम , पुरुष एवेदं सर्व यदभूतं यच्च भव्यं" इत्यादिना पुरुष विद्या निरूप्यते । तत्रैव "ब्रह्मविदाप्नोति परम" इति प्रश्ने " सवा एव पुरुषोऽन्नरसमय'' इति आरभ्य प्राणमयमनोमयविज्ञानमयानंदमयात्मक़ब्रह्म स्वरूपं निरूप्यते । तत्र सर्वत्र "सचपुरुषाविधएव” इति च पठ्यते अत्रान्नमयादिषु पुरुष सूक्ते च पुरुष पद श्रवणात् अन्नमयादिषु सहस्रशीर्षवत्वद्युषसंहार कत्तव्यो न वेति भवति संशयः। किमत्र युक्तम ? उप संहतव्यमेवेति, कुतः ? सर्वत्र ब्रह्मणएवोपास्यत्वादत्राप्युपासनोक्ते ब्रह्मत्वपुरुषत्वयोरविशेषाद विद्युक्यात् इति प्राप्तः।
तैत्तरीयक में- "सहस्र शिर, सहस्राक्ष, सहस्र पैर वाला पुरुष चारों ओर से विश्व को, दस अंगुल में ही आवृत करके स्थित है । इस सारे जगत में यह पुरुष ही था, और रहेगा" इत्यादि से पुरुष विद्या का निरूपण किया गया है । उसी स्थान पर "ब्रह्मविद परम पुरुष को पाता है" इस प्रश्न पर यह 'ब्रह्म ही अन्नरसमय पुरुष है" इत्यादि से प्रारम्भ करके प्राणमय मनोमय विज्ञानमय और आनंदमयात्मक ब्रह्म का निरूपण किया गया है। उस प्रसंग में हर एक वर्णन में " सच पुरुष बिधएव" ऐसा भी कहा गया है । इस विषय में संशय होता है कि- अन्नमयादि और पुरुष सूक्त में