________________
( ४१३ )
"" अतोज्यायाश्च पुरुषः" इत्यादि से उसके आधिक्य का निरूपण किया गया है । ऐसे बिलक्षण स्वरूप को, पुरुष पद के साम्य के आधार पर अन्नमय पुरुष एक नहीं कह सकते और न उक्त विलक्षण धर्मों का उपसंहार ही कर सकते हैं ।
चकारात, “अम्भस्यपारे भुवनस्य मध्येनाकस्य पृष्ठे महतो महीयान् " इत्यादिश्रुनयः " सर्वतः पाणिपादान्तम" इत्यादि स्मृतयश्च संगृह्यन्ते । एतेत् यत् किंचिधर्मं साम्येऽपि न मूलभूतब्रह्म रूपत्वम् अतएव न तत्रोपा स्यता तथात्वेनेति ज्ञापितम् । अतएव भृगूपाख्यानेऽन्नमयादि ब्रह्मज्ञानेऽपिजि - ज्ञाषैवोक्ता । भृगौरानंदरूप पर ब्रह्म ज्ञाने तु नोक्तां । तेनाशेषगुणपूर्ण ब्रह्मेत्युक्तं भवति अत उत्तमाधिकारीभिस्तदेवोपासनीयं, न विभूति रूपमिति - ज्ञापितम् ।
चकार से "समुद्र के पार भुवन के मध्य स्वर्ग के पीछे वह महानतम् है । इत्यादि श्रुति "सब जगह उसके हाथ पैर हैं ।” इत्यादिस्मृति की ओर इंगित किया गया है । कहा गया है कि इनसे और पुरुष विद्या के धर्मों में कुछ समता है "फर भी इसमें मुलभूत ब्रह्म रूपता नहीं है इसलिए वैसी उपासना सम्भव नहीं है । इसलिए भृगुपाख्यान में, अन्नमय आदि के ब्रह्म ज्ञान होते हुए भी, जिज्ञासा की गई है । जब कि भृगु ने आनन्दरूप परब्रह्म ज्ञान के संबंध में नहीं की है। इससे निश्चित होता है कि आनन्दमय ही समस्त गुणों से पूर्ण - ब्रह्म है । उत्तम प्रधिकारियों से वही उपास्य है । विभूति रूप उपास्य नहीं है ।
अथ निर्दोषत्वं ज्ञात्वा भजनीयमिति ज्ञापयितुमधिकरणान्तरमारभते ।
इस प्रकार निर्दोषता बतलाकर, भजनीयता बतलाने के लिए दूसरे अधि -करण को प्रारम्भ करते है ।
५ अधिकरण :--
वेदाद्यर्थभेदात् ३|३|२५||
वाजसनेयिशाखायां "द्वयात्प्रजापत्या" इत्युपक्रम्य तेषां मिथः स्पर्द्धामुक्तवोच्यते - "ते ह देवा ऊचुर्हन्ता सुरान् यज्ञ उद्गीथेनात्ययामेति तेह वाचमूचुस्त्वं न मुद्गायेति तथेति तेभ्यां वागुद्गायत योवाचि भोगस्त्वं देवेभ्य आगात्