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शक्यम् 1 प्रमाणत्वव्याहति प्रसंगांत् । एकत्व प्रतारकत्वे सर्वत्रापि तच्छंकया तदुक्ते कोऽपि न प्रवर्त्ततेतापि साक्षात् क्रियार्थत्वाभावऽपिनासन्निरूपकत्व मर्थवादानाम् । वस्तुतस्तु " यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा वा तदेव वीर्यवत्तंर भवति" इतिश्रुतेः " ज्ञात्वा ज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति, विदुषः कर्म सिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषोभवेत् " इत्यादि वाक्यै र्य एवं वेदत् इति वाक्यैश्चार्थवादोक्त स्वरूपं ज्ञात्वा कर्म करणे पूर्ण फलमन्यथा नेत्यर्थवादानां फलोपकार्या गनिरूपकत्वान्ननर्थक्यमत उक्त ऽर्थे हेतुं न पश्यामः ।
ये भी नहीं कह सकते कि इसमें, मुखस्थ उपासना की विधि है, इस लिये: प्राण की स्तुति के लिये अन्यों की पापविद्धता दिखलाई गई है। बिना प्रयोजन. श्रुति कोई निरर्थक बात नहीं कहती, इसलिये उक्त कथन असंगत है । उक्त कथन से तो श्र ुति की प्रामणिकता नष्ट हो जायेगी । एक जगह श्रुतिः की प्रवंचना सिद्ध हो जाने पर, हर जगह उसके कथन पर, प्रवंचना को ही शंका बनी रहेगी अतः कोई विश्वास न करेगा, । साक्षात् क्रियार्थता के अभाव में भी अर्थवाद वाक्यों की निरूपकता नहीं होती । वस्तुतः तो बात ये है कि "श्रद्धा ज्ञान और विद्या से जो कुछ भी किया जाता है वही प्रबल होता है, इस श्रुति से तथा - "कर्म को भली भाँति उपासना करते है" ऐसे विद्वान् को हो कर्म सिद्धि होती है, अविद्वान की नहीं होती" इत्यादि वाक्यों से ज्ञान की महत्ता ज्ञात हो जाने पर, अर्थवाद में कहे गये स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है तभी किये हुये कार्य का फल होता है, अन्यथा नहीं होता, अर्थवाद वाक्य: फलोपकारी अंग के रूप में निरूपण करते हैं इसलिये निरर्थक नहीं होते। इस लिये उक्त कथन में कोई हेतु नहीं समझ में आता ।
इति प्राप्ते तमेवाह - वेधादिति । वाक् प्राणादिषु यः पाप्मवेध, आदिप - . दात् दुष्ट विषय सम्बन्धश्चतत्र हेतुरर्थभेदः । अर्थो भगवांस्तस्माद् भेदादि -- त्यर्थः । " आसन्यस्तु य एवायं मुख्यः प्राणः तमुद्गीथमुपासीत् " इति छां - - दोग्य उपास्यत्वेनोक्तः । सर्व वेदांत प्रत्ययमिति न्यायात् वेदांतेषूपास्यम् ब्रह्मातिरिक्त नोच्यते इत्यासन्योऽपि ब्रह्मभिन्नोऽत एवापहतपाप्मा ह्येष इति सामगैः षठ्यते अतस्तत्र न पाप्मवेध इति भावः । ब्रह्मणः स्वतंत्र पुरुषार्थं त्वज्ञापनायार्थपदेनोक्तिः । एतेन विभूतिरूपेऽपि यत्रैवं तत्र मूलभूत ब्रह्मणि निर्दोषत्वं किं वाच्यम् ? इति ज्ञापितम् । अथर्वाऽर्थः प्रयोजनं विषय इति या वत्, तद्भेदादित्यर्थः ।