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'प्रियमेव' इत्यादि में जो, परोक्षवाद रूप से प्रिय प्राधान्य की भावना है, उन्हीं का आश्रय लेना चाहिये शिरपक्ष आदि की भावना नहीं करनी चाहिये, उनका कोई प्रयोजन नहीं है । 'आनन्द आत्मा' इस वाक्यांश से, पूर्वोक्त प्रिय प्राधान्य आदि रसात्मक वस्तुओं का आत्मा आनन्द को कहा गया है । उसके आगे 'रसो वैस' ' इत्यादि से रस के स्थायिभावात्मक उसी आनंदमय की व्याख्या हैं । प्रिय बिययक लीला के मध्य में डूबते उतराते भक्त को रसात्मक अनुभूतियाँ भी आनन्द रूप ही है ? ऐमी अनुभूतियाँ उत्तम अधिकारियों को ही होती है, इसी भाव को श्रुति ने ध्येय के शिरपक्ष आदि रूपों से निरूपण किया है । उक्त प्रकरण से भी ज्ञापन होता है कि उक्त रूप की जो क्रमिक उपास्यता है, उसका अल्प कालीन ही महत्व होता है, अतः उपासना मार्गीय उपास्य विभूति रूप है, मूल रूप नहीं है । 'यन्न योगेन' इत्याधि वाक्य से यही स्पष्ट होता है ।
तैत्तरीयकेऽन्नमयादि निरूपणे पुरुषविधत्वं तेजां निरूप्य ' तस्यैष एवं शारीरात्मा यः पूर्वस्य' इति सर्वत्र निगद्यते । तन्नानंदमयपर्यन्तं शारीरात्म कथनात् भवति संशयः । शरीराभिमानी जीव एव कश्चिदुत ब्रहमैत्र ? तन्न शारीरपदाज्जीव एवं भवितुमर्हति । तथा सत्यानंदमयस्यापि ब्रह्मत्वं नोपपद्यते ।
उच्यते च 'भार्गव्यां विद्यायामापन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्' इत्यन्तया श्रुत्या ब्रह्मत्वं इत्युभयतः पाशारज्जुरिति प्राप्तः ।
तैत्तरीयोपनिषद में जहाँ अन्नमय आदि का निरूपण किया गया है बहाँ उन्हे पुरुष रूप से बतलाकर 'इसका वही शारीर आत्म है जो पूर्व का है' इत्यादि सब जगह कहा गया आनन्दमय के वर्णन तक उक्त प्रकार से दी शारीरात्मा
बात दोहराई गई है। इससे संशय होता कि - शाराभिमानी जीव है या ब्रह्म ? शारीर पद से तो जीव होने की ही संभावना अधिक है क्यों कि उसे ही इस नाम से कहा जाता है। यदि शारीर जीव है तो आनन्दमय का ब्रह्मत्व भी संभय नहीं है । ऐसी भी श्रुति हैं— 'भार्गव्य विद्या में उल्लेख्य को ब्रह्म ही जानों" इत्यादि से प्रारम्भ करके आनन्दमय तक कहते हुए अंत में कहते हैं कि - " आनन्द ब्रह्म है ऐसा जानो" इससे तो ब्रह्मत्व को ही सिद्धि होती है । दोनों भोर से ही फासी का फन्दा लटका दीख रहा है । समस्या द्विविधापूर्ण है।
आह— इतर बज्जीववदात्मगृहीतिरात्मग्रहणम् " तस्यैष एवं शारीर आत्मा " इति यदुत्तरात्, "यः पूर्वस्य" इति सर्वभोक्तत्वात सर्वेभ्य आनन्दमयस्त