________________
( ३६८ )
पाण्यादि निरूप्यत इति तत्रैव निरूपितमस्माभिः । यद्यप्यानंदमयाधिकरण एवास्यार्थस्योक्तत्वान्नेयं शंका संभवत । तथापि गुणोपसंहार प्रसंगे मिथ्यावा दिन आपाततः शंका संभवति इत्याचार्येणोक्त्वा निरस्ता ।
उक्त शंका का परिहार करते हैं- “शिरस्त्वादि" इत्यादि । यदि अथर्व - णोपनिषद् के उपास्य का आश्रय लेते हैं तो प्रियशिरस्त्व आदि विशिष्ट प्रकार के भेद हैं, उसके विषय में किसी प्रकार के संशय का स्थान नहीं है । प्रिय शिरस्त्वादि के रूप की उपासना करने वालों को भी आथर्वणिक उक्त धर्मों का उपसंहार करने में कोई अड़चन नहीं है वे कर सकते हैं । प्रियत्वादि ज्ञान को चाहे चित्त शुद्धि के तारतम्य का हेतु मानें, या परोक्षवाद मानें, उस स्थिति में 'अभेद ही सिद्ध होगा, आपके कल्पित मोद प्रमोद का रूप नहीं सिद्ध होगा । ब्रह्म धर्म ही भिन्न हैं, उपासना की दृष्टि से उनका शिर हाथ आदि के रूप में निरूपण किया गया है, हमें भी वैसा ही निरूपण करना चाहिए । यद्यपि आनंदमयाधिकरण के अनुसार ही अर्थ करने पर उक्त शंका उठ ही नहीं सकती । फिर भी गुणोपसंहार के प्रसंग में मिथ्यावादियों के मत से, ये शंका पूरी तौर से उठ सकती है, ऐसा आचार्य पहिले ही बतलाकर निराकरण कर चुके हैं ।
ननूपास्यरूपस्याविरुद्धा एव गुणा उपसंहर्त्तव्या न तु विरुद्धाः । तथा च पुरुषरूपे पक्षादिविरुद्धमिति न तदुपसंहायमित्याशंक्याह —
उपास्य रूप से जो गुण अविरुद्ध हैं, उन्हें उपसंहार कर सकते हैं, विरुद्ध को भले ही न करें । पुरुष रूप में पक्ष आदि रूप विरुद्ध है, उसे उप संहार नही करना चाहिए, ऐसा मत प्रस्तुत करते हुए समाधान करते हैं—
इतरेत्वर्थसामान्यात् । ३।३।१३ ॥
इतरे पुरुषरूपे विरुद्धत्वेन ये भासमानाधर्मास्तेऽप्युपसंहर्त्तव्याः । तत्र विरोधव्यवच्छेद ज्ञापनाय तु शब्दः । तत्रहेतुः अर्थ सामान्यात् इति । अर्थ : पदार्थ आनंदमयत्वलक्षणस्तस्य समानत्वादेकत्वादित्यर्थः ।
आनंदमय से भिन्न, पुरुषरूप में, विरुद्ध रूप से प्रतीत होने वाले जो धर्म हैं, उनका उपसंहार करना चाहिए । सूत्रस्थ तु शब्द विरोध निरास का ज्ञापक है | आनंदमय लक्षण वाला पदार्थ और पुरुष पदार्थ एक ही है, इसलिए उपसंहार कर सकते हैं ।