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"यद् वैश्वदेवे न यजते प्रजा एव तद्यजमानः सृजत" इत्येना श्रुतिरस्य यागस्य प्रजाफलकत्वमाह । “यवैश्वदेवेन यजते अग्निमेव तत्संवत्सरमाप्नोति, तस्माद् वैश्वदेवेन यजमानः संवत्सरीणां स्वस्तिमाशास्ते' इत्याशासीतेति द्वितीया श्रुतिराह । तत्रोक्तरीतिरिति । यत्तू विधिशेषांणामग्निहोत्रादि धर्माणां तदेवैकमग्निहोत्रादिकर्म सर्वत्रेत्यर्थाभेदादुपसंहार इति । तन्न साधु अग्नि होत्रादेस्तत्तच्छाखिनां स्व स्व शाखोक्त प्रकारस्यैव करणादतिरेके प्रायाश्चित्तश्रवणानांऽन्य शाखोक्त धर्मोपसंहारः शक्यवचनः । प्राणाद्युपासनास्वधिकगुणस्येतरत्रोपसंहारे न किंचिद् बाधकं दृश्यते इति तत्र स क शक्यत इति चकारेण तदादयः संगृहह्यन्ते । वस्तस्तु पूर्व समुच्ययार्थश्चकारः । शाखान्तरोक्त धर्मोपसंहार प्रयोजनाभावस्य, बीजमनेन सूत्रेणोक्तम् ।
उक्त प्रसंग में विशेष ज्ञेय बात ये है कि एक श्रुति में जिस कर्म का जो फल बतलाया गया है, उससे भिन्न श्रुति में, उस कर्म का वैसा ही फल नहीं कहा गया है उससे भिन्न फल कहा गया है । इस प्रकार द्वितीय श्रुति में कहे गए फल की कामना से वही कर्म करना उचित है, उसके फल के साधकत्व गुणों का ही उपसंहार होगा । जैसे कि "जो वैश्वदेव से भजन करता है, उस यजमान को प्रजा प्राप्ति होती है" ऐसी एक श्रुति इस यज्ञ का, प्रजा प्राप्ति फल बतलाती है। "यद वैश्वदेवेन यजते अग्निमेव संवत्सरमाप्नोति" इत्यादि द्वितीय श्रुति आर्शीर्वादक है। इसमें उपर्युक्त रीति ही दृष्टिगत होती है । जो विशेष अग्निहोत्र धर्मों के एक ही अग्निहोत्र आदि कर्मों को सब जगह प्रयोग करते हैं, वे अर्थभेद से उपसंहार करते हैं । वह शिष्टाचार के विरुद्ध बात है, अनादरणीय है । अग्नि होत्र आदि कर्मों को, उन उन शाखाओं के अनुसार, अपनी-अपनी शाखा के प्रकार से ही प्रयोग करना चाहिए, उसके विपरीत करने में प्रायश्चित का विधान किया गया है, अतः अन्यशाखोक्त धर्मों का उपसंहार नहीं कर सकते । प्राण आदि उपासनाओं में अपने से अधिक कहे गए गुणों का दूसरे में उपसंहार करने में कोई बाधा नहीं दीखती इसलिए वहाँ तो किया जा सकता है । सुत्रस्थ चकार पूर्व समुच्ययार्थक है। अन्य शाखा में कहे गए धर्मों के उपसंहार के प्रयोजन के भाव क "स्वाध्यास्य तथात्वेन" इत्यादि से निरूपण किया गया है । उपसंहार का बीज इसी सूत्र में कहा गया है ।
अन्यथात्वं शब्दादितिचेन्नाविशेषात् ।३।३।६।।
ननूपासनासूक्तन्यायेन गुणोपसंहारो ह्य पास्यानां ब्रह्मत्वेनैक्ये सति भवति। मिथे विरुद्धानां गुणानां शान्तत्वक्रूरत्वतपोभोगादीनामुपसंहारे