________________
( ३६४ ) न्यूनाधिकभाव आपतीति, तत्रोक्तं सच्चिदानंदत्वमनुपपन्न स्यात् तेषां सदैक रूपत्वात् । प्राकृतत्वे च सर्वमसमंजस्यं स्यादिति प्राप्त आह- व्याप्तेरिति । "सर्वतः पाणिपादान्तं' इत्यादिस्मृतेः साकारमेव व्यापकमिति चकारात् सर्वरस इति श्रुत्या रसात्मकत्वेन भक्तानां यादृगरूपेण लीलानु रसानुभवस्तादगुरूपक्रमेण योगमायापसारणेन प्रकटीकरोति इति बाल्यादि भावोपपत्त: सर्वमुपपन्नमित्यर्थः । तेन यावदुक्त धर्मवद् ब्रह्मति सिद्धम् ।
__ अब ये विचार करते हैं कि उपास्य रूपों में बाल्यपौगड कुमार आदि अवस्थाओं का भी तो उल्लेख है। उसके अनुसार तो विग्रह में न्यूनाधिक भाव होता है। इसलिए प्रभु के सच्चिदानंद रूप में भी कमी आती है, क्योंकि वे तो एकमात्र सत्तत्व के ही रूप हैं। इस प्रकार उपास्य के प्राकृत रूप मान लेने से सब कुछ गड़बड़ हो जाता है, इसका उत्तर देते हैं, "व्याप्तेः" "सर्वतः पाणिपादान्त" स्मृति के अनुसार साकार भी व्यापक है 'सर्वरसः" इत्यादि श्रुति से भी उसकी सर्व रसात्मकता निश्चित होती है, भक्तों को जिस प्रकार की लीलारसानुभूति होती है, प्रभु, योगमाया से अपने को उन्हीं रूपों में प्रकट करते हैं। प्रकरण में कहे धर्म की तरह ही ब्रह्म है, ये ही सिद्ध बात है।
ननु ब्रह्मधर्मत्वेन ते सर्वे नित्या वाच्याः । ते च तत्तद्भक्ति विशिष्टाः । तत्र चैकस्यैव भक्तस्य पौर्वापर्येणानेकलीलासंबंधित्वं श्रूयते । तथा च पूर्व लीलाया नित्यत्वेन तत्संबंधिभक्तस्यापितथात्वंवाच्यम् एवं सति तस्यैवाग्रिमलीला संबंधोऽशक्यवचनः । तथा वचने तु पूर्वलीलाया नित्यत्वं भज्येत् । नित्यत्वे त्वग्रिमलीला संबंधिनो भिन्नत्वं स्यात् । तच्चानुभवतदावेदकमानविरुद्धमित्यत उत्तरं पठति
संशय करते हैं कि जो भी ब्रह्मधर्म हैं वे तो नित्य ही कहलावेंगे, क्योंकि वे नित्य ब्रह्म के धर्म हैं । और वे विशेष विशेष भक्ति के अनुसार विशिष्ट हैं, एक ही भक्त का पौर्वापर्य क्रम से अनेक लीलाओं से संबंध देखा जाता है, अतः पूर्वलीला की नित्यता के अनुसार उससे संबंधी भक्त को भी वैसा ही कहना चाहिए, फिर उसका अग्रिम लीला से संबंध भिन्न हो जायगा इस दुविधा को दूर करने के लिए सूत्र प्रस्तुत करते हैं
सभिवादन्यत्र मे ।३।३।१०॥
लीलामध्यपातिनां सर्वेषां पदार्थांनां ब्रह्मणा सहाभेदाद् ब्रह्मणश्चैकस्वात् पूर्वलीलातोऽन्यत्रोत्तरलीलायामपीमे पूर्व लीला संबंधिन एवं त इत्यर्थः ।