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माह । उपसंहार इत्यादिना । उक्त स्थलादिषु यः उपसंहारः सत्वर्थस्य पदार्थस्य भगवल्लक्षणस्योभयत्राप्यभेदादित्यर्थः ।
पूर्वे सूत्र की रीति के अनुसार तो कभी भी गुणोपसंहार का अवसर नहीं मिल सकता, जब कि रामोपनिषद् में स्पष्ट उपसंहार दीखता है – “यो वे ये मत्स्यकुर्माद्यवताराः" इत्यादि "नमस्ते रघुवर्याय" इत्यादि में राम के अवतार रूप के वर्णन है, उक्त वाक्य में ते शब्द श्री व्रजनाथ के रघुवर्यत्व का द्योतक है क्या ? इस संशय पर प्रयोजक रूप को सिद्ध करते है -- "उपसंहार इत्यादि उक्त स्थलों में जो उपसंहार है, वह सत्व वाची भगवल्लक्षणयुक्त पदार्थ है, इसलिए दोनों ही अभिन्न हैं, ( अर्थात् राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं है ।)
नन्वेवं सति मत्स्ये शर चापादिकं, पुरुषे च शृंगादिकं भावनीयं स्यात् इति चेत्-तत्राह विधिशेषवता इति यथा विधिशेषाणामग्निहोत्रादीनामग्निहोत्रत्वादि लक्षणे धर्मे समानेsपि सति स्वस्वशाखोक्त प्रकारस्यैव करणं । नान्यशाखोक्त धर्मोपसंहार, एवमिहापि तत्तदवतारोपासकस्य तत्तदसाधारणधर्मं वत्वेनैवोपासनं, नान्यावतारधर्मं वत्वेनापीत्यर्थः । यद्वा मत्वर्थीयो वत् प्रत्ययोऽत्र । तथा च विधिशेषोऽर्थं वादस्तद्वत् समानं च भवति यत्तत्र चोपसंहार इत्यर्थः ।
यदि अभिन्नता की बात मान ली जाय तो, मत्स्य में शरचाप आदि की तथा पुरुष में शृंग आदि की भावना होगी । इसका समाधान करते हैं "विधिशेषक्त्" जैसे कि विधिशेष अग्निहोत्र आदि के अग्निहोत्र आदि लक्षण धर्मों में समानता होते हुए भी अपनी-अपनी शाखाओं के प्रकारों का ही उपसंहार करने का प्रचलन है, अन्य शाखा का नहीं है, वैसे ही यहाँ भी उन-उन अवतारों के उपासकों को उन-उन अवतारों की विशेषताओं की उपासना करनी चाहिए अन्य अवतारों के धर्मों की उपासना विहित नहीं है । उक्त सूत्र में वत् प्रत्यय मत्वर्थीय है, उसी के अनुसार सूत्रार्थ करना चाहिए । विधिशेष केवल अर्धवाद है, उसी के समान उक्त उपासनाओं में अन्य अवतारों के धर्म की बात भी है इसलिए उपसंहार करने में कोई अड़चन नहीं है ।
अत्रैवं ज्ञेयम् एकस्यां श्रुतौ यस्य कर्मणो यत् फलमुच्यते तदितरस्यां तस्याँ तस्यैव कर्मणस्तदितरत् फलमुच्यते । एवं सति द्वितीय श्रुत्युक्त फल कामनयाऽपि तदेव कर्म कर्त्तकं भवतीति तत्फलसाधकत्वस्योपसंहारः । यथा