________________
( ३८१ )
वेद के अनुरूप प्रकृत उपासना में भी, जैसे रूप की उपासना का वर्णन किया गया है, उसमें जिन धर्मों का उल्लेख है, उस रूप में उन्हीं धर्मों के अनुसार उपासना करनी चाहिए, क्योंकि उनके विषय में वैसा ही शास्त्र प्रमाण मिलता है, रूपान्तरोपासना के वर्णनानुसार छोटे से छोटे धर्म का पालन भी उक्त उपासना में हानिकर होगा। इस व्यवस्था के अनुसार, मत्स्योपासक, धनुष वाण आदि की भी भावना कर सकता है, पुरुषोत्तम का उपासका लाख योजन वाली शृंग की भी भावना कर सकता है। अर्थर्ववेदीय रामतापनीयोपनिषद् में श्री राम की उपासना में स्पष्टतः 'जो कि मत्स्य कूर्म आदि अवतार धारण कर भूर्भुवसुवः में व्याप्त हैं उन्हें नमस्कार है" इत्यादि में श्रीराम को अन्य अवतारों के रूप में बतलाया गया है। ऐसा करने से दूसरे अवतारों के धर्म भी उन अवतारों में आक्षिप्त होंगे ? ठीक है वो तो होंगे ही, उसमें ऐसा ही नियम हैं। परमकाष्ठा को प्राप्त ब्रह्म के स्वरूप को पहचान कर ही उपासना करनी चाहिए उस रूप के ही ये अन्य अवतार भी हैं, उन अवतारों में विभिन्न कार्य भी इन्हीं ने किये हैं, ऐसा समझ लेने से कोई अड़चन नहीं होगी। उस रूप में अन्य अवतारों के धर्म हैं ऐसी बात नहीं है अपितु उपर्युक्त बात ही है ? उन अवतारों में ही उन धर्मों की चर्चा श्रति में की गई है, सब जगह उनकी चर्चा नहीं है प्राण आदि की उपासना में ये विशेषता है कि कर्म में भिन्नताआने पर प्रायश्चित्त की व्यवस्था समक्ष उपस्थित होती हैं। श्री राम आदि स्वरूपों की उपासनाओं में उन अवतारों के कर्मों को न करने पर, उस भावनानुसार अपराध होता है, “योऽन्यथासंतमात्मानम्" इत्यादि वाक्य भी, पापापत्ति की बात कहता है। प्राणादि उपासनाओं में अधिक गुणों का दूसरे में उपसंहार करने में वैसी बाधा नहीं है, उन्हें किया जा सकता है।
ननु पुरुषादिरूपस्य विग्रहस्यैव शुद्धब्रह्मत्वादयमेवावतारान्तरेष्वपि लीलाकर्तेति ज्ञानमनुपपन्नमिति चेत् । मैवम्, धर्मिग्राहकमानेनैकस्यैव शुद्ध स्यैवानंतरूपत्वेन सिद्धत्वात् । वस्तुन एव तथात्वान्न काचिच्छंका । यथैकस्यैवान्योन्याभावस्यानंतभावप्रतियोगिकतद्रूपत्व, तावत् प्रतियोगिकात्यन्ता भावरूपत्वं प्रतियोगिकान्योन्याभावात्यन्ताभावरूपत्वं चाभावाभावरूपत्वेऽप्यभावरूपत्वमेव चांगिक्रियते, तहाप्यस्तु । अभावत्वस्याप्रयोजकत्वात् । धमिग्राहकमानस्यैव तथात्वात् । तच्च तैत्तरीगेपनिषत्सु “अतः परं नान्यदणीयसँहि, परात् परं यन्महतो महान्तम् । यदेकमव्यक्तमनंतरूपं विश्वं पुराणं तमसः परस्तात्" इत्यादि श्रुतिरूपं प्रसिद्धमेव ।