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केचित्वाथर्वणिकानां विद्यां प्रति शिरोब्रतापेक्षणादन्येषां तद नपेक्षणाद् विद्याभेद इति प्राप्त, उच्चते - स्वाध्यायस्यैव धर्मो न विद्यायाः । कथमिदमवगम्यत यतस्तथात्वेन स्वाध्याय धर्मवत्वेन समाचारे वेदब्रतोपदेशनपरे ग्रन्थे आथर्वणिका इदमपि वेद व्रतत्वेन समामंनति । "नैतदचीर्ण व्रतोऽधीत" इति चाधिकृतविषयादेतच्छब्दादध्ययनशब्दाच्च स्वोपनिषदध्ययन धर्म एवैष इति निर्द्धायते । तस्मादनवद्यं विद्येकत्वमिति सूत्रार्थं वदंति ।
अपेक्षित मानकर,
कोई इस आणि विद्या को शिरोव्रत की विद्या से अन्यों से अन्यों से अपेक्षित न मानकर, धर्मभेद से कर्मभेद की आशंका करते हैं । उस पर सूत्रकार कहते हैं कि उक्त विद्या के धर्म केवल स्वाध्याय (वेदपाठ) मात्र के हैं, कार्य सम्बन्धी स्वाध्याय धर्म के रूप में, जहां वेदब्रतों का उपदेश दिया गया है वहाँ इस आथर्वणिक का भी वेदव्रत रूप से उल्लेख किया गया है । " नैतच्चीर्ण ब्रतोऽधीत्" इत्यादि वाक्य
अधिकृत रूप से " एतद् " शब्द का प्रयोग किया है, इससे और अध्ययन शब्द से भी उपनिषद् के अध्ययन धर्म के रूप में ही इसका निर्णय होता है । अतः इसे सूत्र से निश्चित होता है कि सभी विद्यायें एक हैं ।
सचिन्त्यते, न ह्यस्य विद्याधर्मत्वं विद्याभेदकम् उक्तन्यायेनान्यत्रापि तदुपसंहारस्य वक्तु ं शक्यक्त्वात् । न चाऽनुसंहारार्थमेवातद्धर्मत्वं बोध्यत इति वाच्यम् । उपक्रमोपसंहाराभ्यां विद्यैकत्वनिर्णयस्यैव दृश्यमानत्वादुपेक्ष्य इव भाति । ननु तदुक्तिर्यथा तथाऽस्तु । अतद्धर्मत्वबोधनस्यानुपसंहारार्थकत्वे कानुपपत्तिरिति चेत् । उच्चते - सूत्रस्य तदुक्तार्थत्वे हि तत्तात्पर्य कल्पना, स एव न साधीयान् । तथाहि "स्वाध्यायोऽध्येतव्य" इत्यादिषु स्वाध्याय शब्दस्य वेदवाचकत्वं प्रसिद्धम | समाचार शब्दस्य विहित क्रिया वाचकत्वं च । तत्रोभयोरपि मुख्योऽर्थो बाध्यते । तस्मिन् संभवति तद्बाधस्त्वयुक्तः । किं चैवं नत्वग्निष्टोम एवोद्दिस्येत्यादिनोवता शंकाया अनिवृतिरिति ।
इस विषय पर युक्त अयुक्त का विचार करते हैं । कहते हैं कि ये विद्या धर्म नहीं हो सकते विद्याभेद के निवारण के लिए ही इस शिरोव्रत के विद्या धर्मत्व का निवारण कर अध्ययन धर्मत्व की स्थापना की गयी है । इससे निर्णय होता है कि इसकी विद्याधर्मता नहीं है किन्तु विद्या अभेदकता तो है ही । उक्त न्याय के अनुसार अन्यत्र भी धर्मों का उपसंहार कर सकते हैं ।