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( ३८२ ) यदि कहें कि पुरुष आदि रूप विग्रह ही शुद्ध ब्रह्म है और वही अन्य अवतारों में लीलाकर्ती हैं, ऐसा ज्ञान जमता नहीं। वह तो जभी जम सकेगा जबकि धर्मि के आधार पर चला जाय तभी, एक ही शुद्ध ब्रह्म की अनन्तरूपों में कल्पना की जा सकती है। वह मूल वस्तु ही अनेक रूपों में व्यक्त होती है इसलिए किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती । जैसे कि एक ही वस्त के अन्योन्याभाव का अनंतभाव प्रतियोगी. उसका रूप होता है, उस प्रतियोगी का वही अत्यंताभाव है; और उस अभाव रूप प्रतियोगी का अन्योन्याभाव अत्यंताभाव रूप होता है, इस प्रकार भावाभाव रूप होते हुए भी वह, अभावरूप में ही ग्रहण किया जाता है, वैसे ही उक्त ब्रह्म की बात भी है । जैसे कि वस्तु का अभाव प्रयोजन रहित होता है, वैसे ही,धर्मि की आधार मान्यता भी वैसी ही है। इसी बात को तैत्तरीयोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है-"इससे छोटा कोई और नहीं हैं, और इससे बड़ा भी कोई नहीं है ये सबसे महान है, इसका अव्यक्त अनंतरूप विश्व में प्राचीनतम है, अन्धकार से श्रेष्ठ प्रकाशवान् है ।" इत्यादि ।
अपरंच सर्वासामुपासनानां हि ब्रह्म विज्ञान साधनत्वेन श्रुतौ निरूपणं क्रियते । यत्प्रकारिकोपासना विज्ञान हेतुः स प्रकारं च निरूप्यते । एवं प्रत्येकस्यां शाखायाँ कतिपय गुण निरूपणं तदितरस्यां शाखायां तदतिरिक्ता नामपि गुणानामित्यत्र को हेतुः ? इति पृच्छामः उपसंहारेण प्राप्तिमनिरूपेण हेतु चेद् ब्रवीषि, तत्रवदामः एवं सति न्यूनगुणनिरूपिका श्रुतिः स्वोक्तानपि गुणान् न वदेत । तथाहि-उपासनानां ब्रह्म विज्ञान फलकत्वस्य निर्णीतत्वात् तस्य चैकजातीयत्वात् धटवत् क्लुप्तशेष साधना साध्यत्वाद् अशेष तन्निरूपिकैव श्रुतिनिरूपयेद् । अन्यातूपासनाया नामोत्क्वोपासीतेत्येतावदेव वदेत् । गुणानाक्षेपलभत्वान्नवदेत् । उपसंहार्यानपि वा वदेत् । निरूपयतिच गुणान्नोपसंहार्यान् ।
सही बात तो ये है कि-श्रुति में सभी उपासनाओं को ब्रह्म विज्ञान की साधनिका के रूप में निरूपण किया गया है, जिस प्रकार की उपासना, विज्ञान की हे तु है वैसे ही उसका निरूपण किया गया है । यदि ऐसी बात है तो एक शाखा में कतिपय गुणों का निरूपण किया गया, फिर दूसरी शाखा में अतिरिक्त गुणों का भी निरूपण क्यों किया गया ? यदि कहें कि-निरूपण न करने से उपसंहार, किसका होगा ? तब तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि