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( ३८६ ) स्मरण कर संसार से मुक्त होते हैं । ऐसे अवतार की ब्रह्मता कैसे है ? इसपर उन्होंने उत्तर दिया ऐसे देवता नारायण देव" इत्यादि उप्रक्रम करके मथुरा का निरूपण करते हुए कहते हैं- "ये जो शक्ति स्वरूपा स्त्रियों से आवृत कृष्ण विराजमान हैं" इत्यादि से, उनके उनके अवतारों में, इस अवतार की श्रेष्ठता बतलाई गई। एते चांशकलापुसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्" इत्यादि-श्रीमद्भगवत, में भी कहा गया। पूर्व क्त रीति मानने से तो सभी की तुल्यता निश्चित होगी किसी की विशेषता निश्चित न होगी। अब प्रश्न होता हैं कि ब्रह्म तो निरवयव है, उसे अंशी और सबको उसका अंश कहना कहाँ तक ठीक है ? इसका भी समाधान उपनिपद् में ही किया गया है "सत्व ही जिसकी प्रिय मूर्ति हैं, ऐसे आपका विशुद्ध सत्व शान्त तेज है" इत्यादि में अप्राकृत भगवत्स्वरूप में सत्व संपन्न कोई भगवद्धर्भ है, ऐसा बतलाया गया है । जिस रूप में भगवान कार्य करना चाहते हैं, वैसा रूप प्रकट करके, उसमें, स्वयं लोहे के गोले में अग्नि के समान आविर्भूत होकर उन-उन कार्यों को करते हैं। जिन जिन अवतारों से उक्त प्रकार की लीलायें होती हैं वे अवतार उनके अंश कहलाते हैं। उस अवतार विग्रह में आविर्भत ब्रह्मस्वरूप की प्रतीति होती है, वह विग्रह सत्वात्मक होने से, आविर्भूत ब्रह्म को धर्म रूपा होती है, चैतन्यस्वरूप वह विग्रह ही अवतार मानी जाती है, उस ब्रह्म के ही एक अंश से उस सत्व विग्रह का प्राकट्य होता है इसलिए वह ब्रह्मांश कही जाती है। जब किसी भी अधिष्ठान की अपेक्षा न करके स्वयं शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तो भक्तों के लिए वे स्वयं पूर्ण भगवान कहलाते हैं । यही उनकी श्रेष्ठता है। सब जगह ऊनके हाथ पैर व्याप्त हैं (इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए), अपने में उसका स्फुरण दिखलाने के लिए शरीर आदिर्भाव में प्रकट होते हैं, उस देह से जो विशिष्ट लीला में, बाल पौगण्ड आदि रूपों में करते हैं, उन्हें हमें नित्य मानना चाहिए। ___ न चैवं सच्चिदानंदविग्रहोक्तिः सर्वत्र विरुद्धा भवेदिति वाच्यम् । सत्वस्यापि भगवद्धर्मत्वेन सच्चिदानंदरूपत्वादनिरोधात् । मंत्राद्याधिष्ठातृ रूपाणि तु विभूतिरूपाणि । एतच्च यथा तथा भक्तिहंसे प्रपंचितम् तत्वंच प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वादितिन्यायेन भगवद्धर्माणामपि सच्चिदानंदरूप त्वाहीनाधिकारिणामप्युपासकानां फलप्रेसूनां तत्तत्फल दानार्थ मैश्वर्यादिरूपेण तत्र तत्र स्थितत्वमेव ।