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संशय करते हैं कि अग्निष्टोम के उद्देश्य से जितने धर्म तैत्तरीयक में बतलाये गए हैं, उतने ही वाजसनेयक में भी हैं, आपकी बतलाई हुई व्यवस्था के अनुसार तो उनके धर्मों का उपसंहार भी उचित हैं, पर वैसा नहीं किया जाता, उसे शिष्टाचार से विरुद्ध मानते हैं। वैसे ही पंचानि विद्या के आधार पर, षष्ठाग्नि को वैदिक लोग कभी उपसंहार नहीं कर सकते । उसी प्रकार, आथर्वणिक में भी धर्मों के रूप में, अन्य रूपों के धर्म का उपसंहार नहीं किया जा सकता । इस पर उत्तर देते हैं
स्वाध्यायस्यतथात्बेन समाचारेऽधिकाराच्च सवच्चतन्नियमः ।३।३।३ ॥
स्वाथ्यायो वेदः स एकमेव कर्म शाखाभेदेन भिन्न भिन्न प्रकारकं बोधयति, इति तत्प्रयुक्तः सभ्यग्भूतेऽग्निष्टोमादि लक्षण आचारे तत्तदंगाचारऽन्यूनावधिककरणलक्षण इत्यर्थः । तावद्भिरेवांगैयोर्गसंपत्त रधिकरणस्याप्रयोजकत्वात् तावतामेवांगानांकरणम् । ननूक्तं तद्धर्माणामप्युपसंहारस्त्वदुक्तरीत्या संभवति, इत्यत आह-अधिकारादिति । सर्वेषांशाखिनां स्वस्वशाखोक्त कर्मण्येवाधिकारो न परशाखोक्तेऽप्यतोऽपि तथा नियमः । चकारात् स्वशाखोक्तात् कर्मणाऽतिरिक्ततत्करणेन्यूनकरणे च "यदस्य कर्मण" इत्यादि प्रायश्चित्त श्रवणमपि तन्नियमे हेतुः समुच्चीयते । अत एव क्वचित् परशाखोक्तमपि व्यवस्थित विकल्प विषयत्वेन कल्पसूत्र उच्यते । विकल्पे तूभयस्याशास्त्रार्थत्वमुपसंहारे तूभयस्यापि शास्त्रार्थत्वमतोऽपि नात्रोपसंहार शंका । अत्र दृष्टान्तमाह-सववच्च इति, यथा सवा, होमा : सप्तसूर्यादयः शतौदनपर्यन्ता वेदान्तरोदितत्रेताग्न्यनाभिसम्बन्धादथर्वणोदितैकाग्निसंबंधाचाथर्वणिकानामेव कार्यत्वेन नियभ्यन्ते । तथा तत्तच्छाखायास्तथात्वात्वात्तत्तदुक्त एव कर्मणि तत्तच्छाखिनामधिकाराच्च स्वस्वशाखोक्तादन्यूनानतिरिक्त कर्मकरण नियम इत्यर्थः।
___ स्वाध्याय अर्थात वेद, एक ही कर्म को शाखा के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार से बतलाता है, यही उसकी शैली है, विधिपूर्वक किए गए अग्निष्टोम आदि के आचार में, उन उन अंगों के आचार नियम में थोड़ी भी घट बढ़ नहीं होगी। उतने ही अंगों से याग की पूर्ति की जायगी, थोड़ी भी अधिकता का उसमें प्रयोजन नहीं है, अतः उतने ही अंगों का आचरण किया जाता है। यदि ऐसी बात है तो, उपर्युक्त उपासना व्यवस्था के अनुसार क्या उनके धर्मों का उपसंहार संभव है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-"अधिकारादिति" अर्थात्