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( ३७८ ) चिताः । यस्त्वनंतेषुविभूतिरूपेण "ऊँइित्येतदक्षरब्रह्म' इति ज्ञात्वोपास्ते तस्य शाखान्तरीया अप्येतदक्षरोपासनप्रकरणोक्ता एवोपसंहत्तु व्या, नान्ये । तद्रूपमधिकृत्येव तेषां गुणानांकथनात् अन्यथाऽतिप्रसंगात् । इयंतूपासनामार्गीया व्यवस्थोक्ता। भक्तिमार्गोंयात्वेतद्विलक्षणा, साऽग्रेवाच्येति ।।
द्रव्य देवता भेदवाले-यागभेद की तरह, उपास्यों के धर्म भेद से जो परस्पर भिन्नता है उससे उक्त हेतु की सिद्ध नहीं होती अतः भेद नहीं है, इत्यादि आशंका का सूत्रकार परिहार करते हैं "एकस्यामपि"। जैसे कि-एक षोडशिका के द्वारा अतिरात्रयाग होता है, यदि और भी षोडशिकायें उसमें ग्रहण की जाये तो उसमें गुणाधिक्य होगा किन्तु वह याग अतिरात्र के अतिरिक्त कोई दूसरा न कहलायगा । अतिरात्र याग के लक्षण और कर्म के अनुसार ही वस्तुओं के ग्रहण और अग्रहण का विधान होता है, वैसे ही ब्रह्म के विशिष्ट और अविशष्ट गुणों के अनुसार उपासनाओं की भिन्नता है वैसे तत्वतः उन उपासनाओं में कोई भेद नहीं है । ब्रह्म धर्म होने से अभेद निश्चित होता है जिससे उक्त संशयित हेतु की असिद्धि हो जाती है । इस प्रकार यदि एक उपासना के रूप में, किसी अन्य उपासना के रूप से अधिक गुण हैं तो उनका उनमें उपसंहार करना उचित है । इस सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य बात ये है कि-सभी उपासना विषयों में अवशिष्ट ब्रह्मत्व ही विशेष है, इस एक मान्यता के आधार पर जो एक मात्र उसकी उपासना करते हैं, उन्ही समस्त गुणों का उपसंहार करना उचित ही है। जो अनंत विभूति रूपों में “ॐ इत्येतदक्षरं ब्रह्म" ऐसा मान कर उपासना करते हैं उन्हें उसकी अन्य शखाओं में जो गुणों का वर्णन है उन्हें अक्षरोपासना के प्रकरण में ही उपसंहृत करना चाहिए अन्यथा नहीं । क्योंकि उस रूप के आधार पर ही गुणों का वर्णन किया गया है । यदि इस व्यवस्था को नहीं मानेगें तो अति प्रसंग उपस्थित होगा। ये उपासनामार्गीय व्यवस्था है, भक्तिमार्गीय व्यवस्था इससे विलक्षण है, उसे आगे बतलावेंगे।
ननु अग्निष्टोममेवोद्दिश्य यावन्तो धर्मास्तैत्तरीये पठ्यन्ते तावन्तो वाज सनेयके । तथा च त्वदुक्तरीत्या वाजसयिनां तद्धर्मोवसंहारोपि न्याय्योभवेन्न त्वेवं सः । शिष्टाचारादिविरोध तथा पंचाग्निविद्याधिकृत्योक्तोऽपि षष्ठोऽग्निर्न छंदोगैः शक्यत उपसंहत्तम् । तथैवाथर्वणिकै कस्मिन् रूपे रूपान्तरधर्मा इति प्राप्ते उत्तरं पठति