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प्रसंग : । शुद्धस्य ब्रह्मणो दुज्ञेयत्वेनोपाधिविशिष्योपासनया चित्तशुद्धो सत्यां स्वत एव तज्ज्ञानं भविष्यति इत्येतत् तात्पर्यकत्वादिति चेत् ।
उक्त मत पर एक पक्ष वाले कहते हैं कि-ब्रह्म तो निविषय है, उसे तो एक मात्र ज्ञान से ही जान सकते हैं। इसलिए उपासना के जो विषय हैं वे तो औपाधिक हैं जो कि अविद्याकल्पित हैं अतः उन-उन विशिष्ट ब्रह्म रूपों का अब्रह्मत्व मानना ठीक ही है। उन रूपों के निरूपक वेदान्तों का अब्रह्मत्व नहीं है, क्योंकि शुद्ध ब्रह्म तो दुज्ञेय है, उपाविविशिष्ट रूप की उपासना से चित्त शुद्ध होने पर स्वतः ही, उनका ज्ञान हो सकता है, इसी तात्पर्य से वेदान्तों ने उन विशिष्ट रूपों का उल्लेख किया है ।
मैवम् , समन्वयविरोधापत्तेः, तासां ब्रह्मविद्यात्वहानेश्च अपरंच"योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते, किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा" इत्यन्यथाज्ञानं निन्दंती श्रुतिः कथं फलसाधकत्वेन तत्तदुपासनांव देत स्पष्टार्थानां श्रुतिवाक्यानां निर्णयमकृत्वा संदिग्धार्थानां ज्योतिराकाशादि शब्दानां तद्वाचकत्वं न निर्णीयात् भगवान व्यासः। एवं च सत्युक्तरोऽया यागवत्तषां परस्परं भेदश्चावश्यक इत्युभयतः पाशारज्जुः इति प्राप्ते ।
उक्त पक्ष पर द्वितीय पक्ष के लोग कहते हैं कि आपका कथन ठीक नहीं है, आपके कथनानुसार तो समन्वय विरोध हो जायगा । और उनका ब्रह्मविद्यात्व भी नष्ट हो जायेगा। फिर दूसरी बात ये है कि 'जो अन्यथा स्वरूप आत्मा का अन्यथा रूप से प्रतिपादन करता है उस आत्मघाती चोर ने कौन सा ऐसा पाप है जो नहीं किया हो" इत्यादि श्रुति अन्यथा ज्ञान की निन्दा कर रही है, वही श्रुति उन-उन उपासनाओं को, फलसाधक रूप से कैसे बतला सकती है ? भगवान् वेदव्यास ने, रामकृष्ण आदि नामों का स्पष्ट उल्लेख करने वाली श्रुतियों का कुछ भी निर्णय न करके, संदिग्ध अर्थ वाले ज्योति आकाश आदि शब्द उनके वाचक हैं, ऐसा भी निर्णय नहीं किया है। इस प्रकार श्रुति विरोध और व्यासाशय विरोध दोनों ही होते हैं, जिससे याग की तरह उन विद्याओं का परस्पर भेद आवश्यक हो जाता है । ये तो दोनों ओर से ही फांसी का फंदा दीखता है।
अभिधीयते-सर्वर्वदान्त प्रत्ययम्, अनेक रूप निरूपकः सर्व वेदांतः प्रत्ययौ ज्ञानं यस्य तत्तथा । ब्रह्मणोऽनन्त रूपत्वेऽपि यानि यानिरूपाणि विविधैर्जीव