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तृतीय अध्याय
तृतीय पाद प्रारम्भ
१ अधिकरण :
सर्ववेदान्त प्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात् ।३।३।१॥ .
पूर्वपादे जडजीव धर्म निराकरणेन शुद्धस्यैव सच्चिदानन्द विग्रहरूपत्वं ब्रह्मणो निरूपितम् । इह तु ब्रह्मगता एव धर्मा विचार्यन्ते । ते चेद् एकस्मिन् वाक्य एव सर्वं पठिता भवेयुस्तदा न विचारणीया भवेयुर्विरोधाभावात् । पठिताश्च तत्तदुपासना प्रकरणेषु क्वचित् त एव क्वचिद् भिन्नाः । यथा वाजसनेयिनः पंचाग्नि विद्यां प्रस्तुत्य षष्ठमन्यमग्नि पठन्ति- "तस्याग्निरेवाग्निः" इति । छंदोगास्तु पंचसंख्येवोपसंहरन्ति-''अथ य एतानेवं पंचाग्नीन् वेद" इति । तथा प्राण संवादे मुख्य प्राणादन्याँश्चतुरः प्राणान् वाक् चशुः श्रोत्रमनांसि पठन्ति । वाजसनेयिनस्तु तमपि पञ्चमं पठन्ति ।
पूर्वपाद में जड जीव धर्मों का निराकरण करते हुए ब्रह्म के शुद्ध सच्चिदानन्द रूप का निरूपण किया गया। अब इस पाद में ब्रह्म गत धर्मों पर विचार करते हैं। यदि उनके वे सारे धर्म एक ही वाक्य में एक ही स्थान पर वणित होते तो विचार करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उनमें तो कोई विरुद्धता होती नहीं, किन्तु वे तो भिन्न उपासनाओं के प्रकरणों में कहीं एक से कहीं भिन्न रूप से वर्णित हैं । जैसे कि वाजसनेयी संहिता में पंचाग्निविद्या का उल्लेख करते हुए "तस्याग्निरेवाग्निः' इत्यादि में एक छठी विशेष अग्नि का वर्णन किया गया है । जब कि छांदोग्योपनिषद् में “अथ य एतानेवं पंचाग्नीन वेद" इत्यादि में पाँच ही संख्या का उल्लेख करके उपसंहार करते हैं । ऐसे ही, प्राण संवाद में मुख्य प्राण से अतिरिक्त चार प्राणों, वाक चक्षु श्रोत्र मन आदि का उल्लेख किया गया है किन्तु वाजसनेयी में उन्हें भी पांच प्रकार का कहा गया है।