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गया है-"वही जिससे साधु कर्म कराते हैं उसे यम लोकों से ऊपर उठाते हैं, और जिससे असाधु कर्म कराते हैं उसे नीचे यम लोक में गिराते है" इस श्रृति में ब्रह्म को केवल कर्म कराने वाले ही नहीं कहा गया है अपितु कर्मानुसार फल दातृत्व भी उन्ही का बतलाया गया है, इसलिए कोई अमंगति नहीं होती । संशय हो सकता है कि ईश्वर जब स्वयं फलदान में समर्थ हैं तो उसमें कर्म को कारण मानने का क्या तात्पर्य है ? इसका निराकरण "कार्यवैचित्र्यं च कथम्" इत्यादि शंका में कर चुके हैं [विद्वन्मण्डन में श्री विठ्ठल ने भी किया है] इसलिए सकाम भाव से भी वे ही भजनीय हैं, कोई और दूसरा नहीं है।
तृतीय अध्याय द्वितीय पाद समाप्त ये अनुवाद चौखम्बा संस्कृत सिरीज से प्रकाशित अणुभाष्य मूल के सन् १६०६ के संस्करण के अनुसार किया गया है, उसमें "विद्वन्मंऽने श्री विठ्ठलेन च" ऐसा पाठ मूल भाष्य में दिया हुआ है पूज्य अनुवादक महोदय ने मूल के अनुसार उक्त वाक्य को भी दे दिया है पर उनका मत है कि ऐसा पाठ महाप्रभु बल्लभाचार्य की लेखनी से संभव नहीं है, क्योंकि आचार्य के गोलोकवास के समय श्री विठ्ठलनाथ जी अल्पवयस्क थे, उस समय विद्वन्मण्डन ग्रन्थ बना भी नहीं था प्रसिद्धि तो ये है कि "विद्वन्मण्डन" ग्रन्थ गोस्वामी जी ने अपने विद्वान पुत्र गिरिधर जी की प्रार्थना पर मधुसूदन सरस्वती के ग्रन्थ "अद्व तसिद्धि" के निरास के लिए रचा था, जिसमें पूर्वपक्ष स्वयं गिरधर जी ने ग्रहण किया था। इसलिए हमने उक्त वाक्यांश को [ ] कोष्ठबद्ध ही छापा है । प्रसिद्धि है कि अणुभाष्य के अगले अन्तिम डेढ़ अध्याय का भाष्य गोस्वामी विट्ठल जी ने किया है ।
-सम्पादक